शनिवार, फ़रवरी 27

हूक



 नील समंदर नीर को तरसे

नयना नील गगन निहारे

व्याकुल पपीहा प्रीत में 

पीहू-पीहू की हूक हुंकारे।


 घुमड़-घुमड़ घटाएँ बरसें 

 बादल ओट छिपे चंचला 

शुष्क तरु खिलीं कोपलें

अहसास अंतस पर मचला

घट प्रेम का फूटा समीर पर 

 मुग्ध मध्यम पवन दुलारे।।


चपल चंचल अल्हड़ बूँदें 

पलकों पर सपना बन उतरी 

कर्म रेख का झूले झूलना

 चक्षु कोर में उलझी झरी 

अजब खेल है विधना का भी

लगन सीप की स्वाति पुकारे।।


पीर हृदय को मंथती रहती

 तपता रहता है ज्यों फाग

 सूनी अँखियाँ राह निहारे 

 जाग रहा मन का अनुराग

 विरह हूक ऐसी उठती  

 सूर्य ताप से जलधर कारे।।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

बुधवार, फ़रवरी 24

ऋतु वसंत


 वासंती परिधान पहनकर

क्षिति दुल्हन-सी शरमाई है 

शीश मुकुट मंजुल सुमनों का 

मृदुल हास ले मुसकाई है ।।


पोर-पोर शृंगार सुशोभित

ज्यों सुरबाला कोई आई है

मुग्ध घटाएँ बहकीं-बहकीं 

घट भर सुषमा छलकाई है।।


शाख़-शाख़ बजती शहनाई 

सौरभ  गंध उतर आई  है

मंद मलय मगन लहराए

पात झाँझरी झनकाई है ।।


कली कुसुम की बाँध कलंगी

रंग कसूमल भर लाई है 

वन-उपवन सजीं बल्लरियाँ

ऋतु वसंत ज्यों बौराई है। ।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

रविवार, फ़रवरी 21

साथी


शीतल झरना झरे प्रीत का

बहता अनुराग हूँ साथी

सींचू सुमन समर्पण से 

कभी न बग़िया सूखे साथी।


मैं तेरे बागों  की शोभा

दूर्वा बनकर लहराऊँ 

रात चाँदनी तारों वाली

सपना बनकर सज जाऊँ 

बिछ जाऊँ बन प्रेम पुष्प 

पाँव चुभे न काँटे साथी ।।


 देहरी सजती भाव से

 प्रीत बसंत के साथ

आस कोंपले नित सींचू

पीव सतत थामना हाथ

ऋतुएँ  बदले पहनावा

यही जीवन शृंगार साथी।।


झड़े साख़ से पात सभी 

धूप-छाँव का खेल

जीवन में संताप हरुंगी 

नीर मेघ का मंजु मेल 

अमर बेल-सी सांस बढ़े 

 रहे न विरह साथ साथी।।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

गुरुवार, फ़रवरी 18

अनमनापन

अनमनेपन का

प्रकृति से अथाह प्रेम

झलकता है 

उसकी आँखों से 

प्रेम में उठतीं  

ज्वार-भाटे की लहरें 

किनारों को अपने होने का 

एहसास दिलाने का प्रयत्न 

बेजोड़पन से करती हैं  

एहसास के छिंटों से 

भिगोती हैं जीवन

जीवनवाटिका में

फूल बनने की अभिलाषा को 

समझकर भी मैं नासमझी की 

डोर से ही खींचती हूँ 

और धीरे-धीरे समझ को 

उसमें डुबो देती हूँ।


उसकी फ़ाइल पेपर की 

उलझन से इतर

अक्षर बनने की लालसा का 

पनपते जाना 

और फिर 

वाक्य बन

समाज को छूकर देखना

कविता बन

हृदय में उतरना 

तो कहानी बन

 आँखों से लुढ़कने की

 अथाह चाह

तो कभी 

उपन्यास के प्रत्येक पहलू को 

घटित होते देखना

उसकी उस लालसा को

 न सींच पाने की पीड़ा

मैं भोगी बन हर दिन भोगती हूँ।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

शनिवार, फ़रवरी 13

प्रेम


 हर कोई आज-कल प्रेम में है

जैसे भोर की प्रीत में लिप्त हैं रश्मियाँ

त्याग की पराकाष्ठा के पार उतरती मद्धिम रौशनी

सूर्य को आग़ोश में भर नींद में जैसे है सुलाती 

वैसे ही हर नौजवान आजकल प्रेम में है।


गलियों में भटकता प्रेम भी प्रेम है 

समर्पण की भट्टी में अपनापन कुरेदता 

कुछ पल का सुकून दिलों की जेब में भरता  

आत्मीयता में भीगे चंद पल हैं  लहराते 

वैसे ही हर नौजवान आज-कल प्रेम में है।


भविष्य का दरदराया  चेहरा अनदेखाकर

 अनदेखा करते हैं मुँह में पड़े अनगिनत छाले

आत्मभाव में डूबे स्वप्न के पँखों पर सवार 

आत्मविभोर हो मन की उड़ान जैसे हैं उड़ते 

वैसे ही हर नौजवान आज-कल प्रेम में है।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'


बुधवार, फ़रवरी 10

वर्तमान


 एकाकीपन में डूबी चुप्पी

शब्द तलाश ही रही थी कि

अचानक चोट खाया वर्तमान 

हृदय से लिपटकर  रोया।


आत्मभाव से जकड़ी हथेलियाँ  

आपबीती अक्षर बन बिखरी 

अवंतस के लूटने का प्रमाण 

पक्षियों का स्वर बन चहचहाया।


अहं पँखों पर सवार हो आया 

तारों की कतार ज्योति को बुझाया 

चाँद की धवल चाँदनी पर देखो!

स्याह  रात का पर्दा लगाया।


बसंत में पल्लवित पौधे को 

बुहार अग्नि पुष्प खिलाए 

नदियों को तितर-बितर कर 

साज़िश से समंदर को सुखाया।


 एकाधिकार की कसौटी पर

 मनमाने व्यवहार से जीवन कसा 

 ज़िद स्वभाव की चटकनी से जड़ी 

 मुख्य-द्वार पर देखो! भविष्य टँगवाया।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

रविवार, फ़रवरी 7

मधुमास अंगना का मेरे

 तमसा के पथ पर उजियारा

जुगनू है जीवन का मेरे ।

हृदय शाख पर खिले फूल सा

मधुमास अंगना का मेरे।


उजली भोर गाती प्रभाती

गुनगुनी धूप सी मृदु बोली

तारक दल से मंजुल चितवन

शाँत चित्त मन्नत की मोली

संवेदन अंतस तक पैंठा

मानस कोमल सुत का मेरे  ।।


आँगन खिलता है शतदल सा

नयना निरख निरख कर सरसे

शीतल धार प्रवाह स्रोत सा

शुष्क राह पर पियूष बरसे

स्वप्न चढ़े ज्यों दृग पलकों पर

राज दुलारा मन का मेरे।।


चन्द्र रश्मियाँ तेज़ उड़ेले 

और चाँदनी करे शृंगार

मुखमंडल आभा से चमके

सौंपे ममता धीर उपहार

करूं निछावर सब कुछ उस पर

कंठ हार मोती का मेरे ।।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'


सोमवार, फ़रवरी 1

आंख्यां सूनी जोवे बाट




 राजस्थानी लोक भाषा में एक नवगीत।


गोधुली की वेला छंटगी

साँझ खड़ी है द्वार सखी

मन री बाताँ मन में टूटी 

बीत्या सब उद्गार सखी।।


मन मेड़ां पर खड़ो बिजूको

झाला देर बुलावे है 

धोती-कुरता उजला-उजला 

हांडी  शीश हिलावे है

तेज़ ताप-सी जलती काया 

विरह कहे  शृंगार सखी।।


पाती कुरजां कहे कुशलता 

नैना चुवे फिर भी धार

घड़ी दिवस बन संगी साथी

चीर बदलता बारम्बार 

घूम रह्यो जीवन धुरी पर

विधना रो उपहार सखी ।।


आती-जाती सारी ऋतुआँ

छेड़ स्मृति का जूना पाट  

झड़ी लगी है चौमासा की

 आंख्यां सूनी जोवे बाट 

कोंपल जँइया आस खिलाऊँ 

प्रीत नवलखो हार सखी।।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'


अनुवाद 

गोधुली की घड़ियाँ बीत गई

साँझ खड़ी है द्वार सखी

मन की बातें मन में टूटी 

बीते सब उद्गार सखी।।


हृदय मेड़ पर खड़ा बिजूका

दे आवाज बुलाता है

धोती-पहने उजली-उजली 

गगरी शीश हिलाता है

तेज़ ताप-से जलती काया 

विरह करे शृंगार सखी।।


पाती कुरजां कहे कुशलता 

नैन छूट रही जल धार

घड़ी दिवस बन संगी साथी

चीर बदलते बारम्बार 

घूम रहा जीवन धुरी पर

विधना का उपहार सखी ।।


आती-जाती सारी ऋतुएं

खोलें क्यों स्मृति के पाट  

झड़ी लगी है चौमासे की

सूने दृग निहारे बाट 

कोंपल जैसे आस खिलाऊँ 

प्रीत नौ लखा हार सखी।।