गुरुवार, फ़रवरी 18

अनमनापन

अनमनेपन का

प्रकृति से अथाह प्रेम

झलकता है 

उसकी आँखों से 

प्रेम में उठतीं  

ज्वार-भाटे की लहरें 

किनारों को अपने होने का 

एहसास दिलाने का प्रयत्न 

बेजोड़पन से करती हैं  

एहसास के छिंटों से 

भिगोती हैं जीवन

जीवनवाटिका में

फूल बनने की अभिलाषा को 

समझकर भी मैं नासमझी की 

डोर से ही खींचती हूँ 

और धीरे-धीरे समझ को 

उसमें डुबो देती हूँ।


उसकी फ़ाइल पेपर की 

उलझन से इतर

अक्षर बनने की लालसा का 

पनपते जाना 

और फिर 

वाक्य बन

समाज को छूकर देखना

कविता बन

हृदय में उतरना 

तो कहानी बन

 आँखों से लुढ़कने की

 अथाह चाह

तो कभी 

उपन्यास के प्रत्येक पहलू को 

घटित होते देखना

उसकी उस लालसा को

 न सींच पाने की पीड़ा

मैं भोगी बन हर दिन भोगती हूँ।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

44 टिप्‍पणियां:


  1. सादर नमस्कार,
    आपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 19-02-2021) को
    "कुनकुनी सी धूप ने भी बात अब मन की कही है।" (चर्चा अंक- 3982)
    पर होगी। आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    धन्यवाद.


    "मीना भारद्वाज"

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय मीना जी मेरे सृजन को चर्चामंच पर स्थान देने हेतु।
      सादर

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  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार १९ जनवरी २०२१ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया श्वेता जी पाँच लिंकों पर मेरी रचना को स्थान देने हेतु।
      सादर

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  3. बहुत सुंदर प्रस्तुति

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया अनुराधा जी।
      सादर

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  4. एहसासों से सजी-सँवरी सारगर्भित रचना।

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    1. सादर आभार आदरणीय शास्त्री जी सर।
      सादर

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  5. अंतर्मन को छूती खूबसूरत रचना..

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    1. दिल से आभार आदरणीय जिज्ञासा जी।
      सादर

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  6. सुन्दर प्रस्तुति.

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय ओंकार जी।
      सादर

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  7. संवेदनाओं से सिंचित अहसास।
    अभिनव अंदाज।
    सुंदर सृजन।

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    1. दिल से आभार आदरणीय कुसुम दी जी।
      सादर

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  8. बहुत सुंदर रचना,अनिता दी।

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय ज्योति जी।
      सादर

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  9. बहुत बहुत सुन्दर सराहनीय रचना

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  10. उलझन से इतर

    अक्षर बनने की लालसा का

    पनपते जाने

    और फिर

    वाक्य बन

    समाज को छूकर देखना

    कविता बन

    हृदय में उतरना - - बहुत सुन्दर व अलहदा सृजन।

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    1. आभारी हूँ आदरणीय शांतनु सान्याल जी सर।
      सादर

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  11. घटित होते देखना
    उसकी उस लालसा को
    न सींच पाने की पीड़ा
    मैं भोगी बन हर दिन जीती हूँ।

    मर्मस्पर्शी रचना..🌹🙏🌹

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  12. बेहद सुंदर अभिव्यक्ति प्रिय अनीता

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  13. नासमझी की डोर से खींच कर समझ को डूबो देना ... हृदय में उतर गया । अति सुन्दर भाव एवं कथ्य ।

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    1. दिल से आभार आदरणीय अमृता जी आपकी प्रतिक्रिया संबल है मेरा।
      सादर

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  14. उत्तर
    1. आभारी हूँ आदरणीय सुशील जी सर।
      सादर

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  15. उत्तर
    1. आभारी हूँ आदरणीय कविता रावत जी।
      सादर

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  16. तो कभी

    उपन्यास के प्रत्येक पहलू को

    घटित होते देखना

    उसकी उस लालसा को

    न सींच पाने की पीड़ा

    मैं भोगी बन हर दिन जीती हूँ।,,,,,।।बहुत सुंदर रचना !आदरणीया शुभकामनाएँ ।

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    1. आभारी हूँ आदरणीय मधुलिका जी।
      सादर

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  17. बेहतरीन रचना अनिता जी, अद्भुत बधाई हो

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    1. दिल से आभार आदरणीय ज्योति जी।
      सादर

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  18. सारगर्भित एवं स्वानुभूत अभिव्यक्ति । अभिनंदन अनीता जी ।

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    1. आभारी हूँ आदरणीय जितेंद्र जी।
      सादर

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  19. ...बेहतरीन भावभिव्यक्ति...

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    1. आभारी हूँ आदरणीय संजय भास्कर जी।
      सादर

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  20. जीवनवाटिका में

    फूल बनने की अभिलाषा को

    समझकर भी मैं नासमझी की

    डोर से ही खींचती हूँ

    और धीरे-धीरे समझ को

    उसमें डुबो देती हूँ।

    इस तरह की नासमझी करनी पड़ जाती है कभी कभी....
    गहन भाव लिए लाजवाब सृजन
    वाह!!!

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    1. सादर आभार आदरणीय सुधा दी मनोबल बढ़ाने हेतु।
      सादर

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