नील समंदर नीर को तरसे
नयना नील गगन निहारे
व्याकुल पपीहा प्रीत में
पीहू-पीहू की हूक हुंकारे।
घुमड़-घुमड़ घटाएँ बरसें
बादल ओट छिपे चंचला
शुष्क तरु खिलीं कोपलें
अहसास अंतस पर मचला
घट प्रेम का फूटा समीर पर
मुग्ध मध्यम पवन दुलारे।।
चपल चंचल अल्हड़ बूँदें
पलकों पर सपना बन उतरी
कर्म रेख का झूले झूलना
चक्षु कोर में उलझी झरी
अजब खेल है विधना का भी
लगन सीप की स्वाति पुकारे।।
पीर हृदय को मंथती रहती
तपता रहता है ज्यों फाग
सूनी अँखियाँ राह निहारे
जाग रहा मन का अनुराग
विरह हूक ऐसी उठती
सूर्य ताप से जलधर कारे।।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना आज शनिवार 27 फरवरी 2021 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन " पर आप भी सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद! ,
आभारी हूँ श्वेता जी सांध्य दैनिक पर स्थान देने हेतु।
हटाएंसादर
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (28-02-2021) को "महक रहा खिलता उपवन" (चर्चा अंक-3991) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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आभारी हूँ आदरणीय शास्त्री जी सर चर्चामंच पर स्थान देने हेतु।
हटाएंसादर
अति सुंदर
जवाब देंहटाएंसादर आभार आदरणीय गगन जी सर।
हटाएंसादर
बहुत ही सुंदर रचना अनिता जी, बधाई हो
जवाब देंहटाएंआभारी आदरणीय ज्योति जी।
हटाएंबहुत ख़ूब अनीता जी !
जवाब देंहटाएंआभारी हूँ आदरणीय जितेंद्र जी।
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बहुत सुंदर रचना सखी
जवाब देंहटाएंआभारी हूँ आदरणीय अनुराधा जी।
हटाएंआज तो विरह में रंगी रचना । भावपूर्ण प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंआभारी हूँ आदरणीय संगीता दी जी।
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वाह, बहुत खूब
जवाब देंहटाएंआभारी हूँ आदरणीय दिलबाग़ जी सर।
हटाएंसादर
चपल चंचल अल्हड़ बूँदें
जवाब देंहटाएंपलकों पर सपना बन उतरी
कर्म रेख का झूले झूलना
चक्षु कोर में उलझी झरी
अजब खेल है विधना का भी
लगन सीप की स्वाति पुकारे।।
अत्यंत सुन्दर भावाभिव्यक्ति ।
आभारी हूँ आदरणीय मीना जी।
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नील समंदर नीर को तरसे
जवाब देंहटाएंनयना नील गगन निहारे
व्याकुल पपीहा प्रीत में
पीहू-पीहू की हूक हुंकारे। कोमल व रेशमी स्पर्श लिए हुई अभिव्यक्ति अपना अलग दीर्घकालीन प्रभाव छोड़ जाती है, जैसे तृण शीर्ष की शरदकालीन सजलता,साधुवाद सह।
आभारी हूँ आदरणीय शांतनु सन्याल जी सर सुंदर सारगर्भित प्रतिक्रिया हेतु।
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बहुत सुन्दर रचना दीप्ति जी विरह को समाहित किए, बधाई
जवाब देंहटाएंआभारी हूँ आदरणीय सुरेंद्र शुक्ला जी सर।
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बसंत में विरह, की वेदना व्याकुल कर देती है ..सुंदर रचना..
जवाब देंहटाएंआभारी हूँ आदरणीय जिज्ञासा दी जी।
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कविता भी शानदार
जवाब देंहटाएंऔर
आपका नया प्रोफाइल पिक भी शानदार
बधाई प्रिय अनीता सैनी जी 🙏
हार्दिक शुभकामनाएं 🙏
स्नेह सहित,
डॉ. वर्षा सिंह
दिल से आभार आदरणीय वर्षा दी जी मेरी रचना और प्रोफइल की तारीफ़ हेतु 😊
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बहुत ही सुंदर सृजन
जवाब देंहटाएंआभारी हूँ आदरणीय संजय भास्कर जी सर।
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पीर हृदय को मंथती रहती
जवाब देंहटाएंतपता रहता है ज्यों फाग
सूनी अँखियाँ राह निहारे
जाग रहा मन का अनुराग
विरह हूक ऐसी उठती
सूर्य ताप से जलधर कारे
विरह हूक!...
वाह!!!
अद्भुत एवं लाजवाब।
आभार आदरणीय सुधा दी उत्साहवर्धन हेतु।
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विरह का सुन्दर वर्णन
जवाब देंहटाएंसादर आभार आदरणीय सर।
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