मंगलवार, मार्च 2

निर्वाण (मनस्वी की बुद्ध से प्रीत)


अंतस के विचारों  में मग्न मनस्वी

स्मृति पन्नों में टोहती स्वयं की छवि

आत्मलीन हो कहे- बियाबान ही साथी

एकांतवास विधना की थाती।


   जीवनपथ के सब साथी झरे 

ज्यों पतझड़ पेड़ से पाती झरे 

उलझीं-उलझीं जब जीवन लताएँ 

  रथ खींचे संग सत गाथाएँ ।

 

झाड़-झंकार के काँटे चुभे,जले पाँव 

वृक्षों की न छाँव मिली न मिली ठाँव 

जेठ दोपहरी की तपती रेत पर  

ज्यों हल जोते खेतिहर अदृश्य खेत पर।


कोरे आसमान ने सहलाया

चाँद-सितारे संगी-साथी सबने बहलाया।

पवन ने प्रीत से लाड़ लड़ाया 

रश्मियों ने पथ पर उजास छलकाया।


हाय! काली रात डराती बहुत थी

गोद चाँदनी की सुहाती बहुत थी

इच्छा-अनिच्छा का खेल था भारी

मुक्त हुई कैसे,न जानूँ क्रम अभी था जारी।


फिर-फिर दुख रुलाता रहता

हृदय भी नीर बहाता रहता

दुख बीता या नयना सूखे  

दुख-सुख हुए पाषाण अब न जीवन दुखे।


  कामना रही न कोई शेष  न कोई चाह   

 मन के संतोष को  मिली थी राह  

व्यग्र छलना अति चतुर रहती सवार 

हाय! उसी डगर पर मिलती बारंबार।


मन टूटा, तन टूटा,टूटा न अटूट विश्वास

मोह-माया का टूटा पिंजर मुक्त हुई हर श्वास

देह धरती पर जले दीप-सी आत्मा में उच्छवास

मनस्वी को मिला बुद्धत्व पहना उन्हीं-सा लिबास।


बुद्धतत्त्व की अन्वेषणा,मनस्वी कानन-कानन डोले

बुद्ध छाँव बने, बुद्ध ही बहता झरना बन बोले

हे प्रिय! पहचानो नियति जीवनपथ की

कंकड़-पत्थर झाड़-झंकार गति जीवनरथ की।


गरजते मेघों से क्यों चोटिल स्वयं को करना 

हवा की प्रीत बरसात के भावों को समझाना 

भांति-भांति के भ्रम भ्रमित कर भटकाएँगे

मृगतृष्णा नहीं जीवन में, ठहराव दीप जलाएँगे।


परीक्षा पृथ्वी पर प्रीत के अटूट विश्वास की

यों व्यर्थ न गँवाओ प्रिय! अमूल्य लड़ियाँ श्वाँस की

तुम पुष्प बन खिल जाना मैं बनूँगा सौरभ 

तुम पेड़ बन लहराना मैं छाँव बनूँगा पथ गौरव।


परोपकार में निहित मानवता की  सुवास हूँ मैं

फल न समझना प्रिय! रसों में मिठास हूँ मैं

काया के शृंगार का न बोझ बढ़ाना तुम 

जीवन के अध्याय विरह को लाड़ लड़ाना तुम।


हे प्रिय! तुम करुणा के दीप जलाना 

दग्ध हृदय पर मधुर शब्दों के फूल बरसाना 

अँकुरित पौध सींचना स्नेह के सागर से

प्रेम पुष्प खिलेंगे छलकाओ सुधा मन गागर से।


सहसा निंद्रा से विचलित हो उठी मनस्वी 

हाय! भोर रश्मियों ने क्यों लूटी मेरे स्वप्न की छवि 

प्रिय!प्रिय!! कह पुकार बौराई बियाबान में

अनुगूँज से सहमी ध्वनि थी स्वयं के अंतरमन में।


ओह! कलरव की गूँज लालिमा धरा पर छाई 

पात-पात हर्षाए ज्यों प्रकृति दुग्ध से नहाई 

मन चाँदनी झरी ज्यों शीतल आभा-सी बरस आई  

प्रीतम की पीर नहीं मद्धिम हँसी होठों ने छलक आई।


अंतस ज्योत्स्ना मुख पर दीप्ति उभर आई थी 

उलझी-उलझी फिरे अकुलाहट निख़र आई थी 

पर्वत पाषाण पादप पात जहाँ दृष्टि वहीं बुद्ध

 काँटों की चुभन से प्रीत, प्रतीति में गवाई सुध।


फूलों ने स्वरुप स्वयं का बदला!

निशा से नीरस थे प्रभात में खिलखिलाए!

उषा में रंग कसूमल किसने है उड़ेला!

तेज़ रश्मियों ने या सुमन स्वयं मुस्कुराए।


आहा! एक बदरी आई स्नेह सजल हो

करुणा के सुमन खिलाए! ममता बरसाई

मिथ्या स्वप्न की डोरी में था चित्त उलझा

हर्षित पलों की दात्री प्रीत अँजुरी भर लाई।

 

झरना मानवता का मन की परतें भिगोता

वात्सल्यता की सुवास सृष्टि में उतर आई

करुणा की मूरत  उतरी मन आँगन में 

भोर की लालिमा आँचल में स्नेह भर लाई।


रश्मियों का तेज़ ज्यों डग भरती मानवता

चुनड़ी पर धूप ने जड़े सतरंगी सितारें

रेत पर पद-चिन्ह बरखान से उभर आए

दर्शनाभिलाषी भोर का तारा स्वयं को निहारे। 


शीतलता लिए था एक झोंका मरुस्थल पर 

ममत्व की प्रतीति निर्मलता शब्दों से संजोए

भाव-विभोर  मनस्वी के अंतस पर छवि उभर आई

नवाँकुर को छाँव संवेदना की बौछार से पात भिगोए।

 

वृक्ष पर बैठ खग  डाल से पँख खुजाते

मद्धिम स्वर में किस्सा पर्वत पार का सुनाया 

एक नगरी मानव की छाया है अविश्वास

मसी के छींटे उद्गार अंतस में उभर आया। 


 विरक्तता भाव बरसा था धरा के आँचल पर 

लो ! प्रकृति न दौंगरा समर्पण का बिछाया

अतृप्ति के भटके भाव में बिखरी चेतना

ज्यों पुष्प मोगरे पर रंग धतूरे का छाया। 


अहं द्वेष क्रोध अंतस के है कुष्ट रोग 

पीड़ा से मती मनोभावों की भ्रष्टता में भारी हुई 

नीलांबर के वितान पर उभरी कलझांईयाँ सी

वेदना की भीगी पंखुड़ियाँ क्षारी हुई। 


तीसरे पहर की पीड़ा क्षितज की लालिमा 

कपासी मेघों का हवा संग बिखर  जाना  

एकाएक झरने-से बहते जीवन में  ठहराव

हलचल अवचेतन की नयनों में उतर आना ।


 संवेदन हीन हैं विचार कलुषित मानव के 

पंख फैलाए व्याकुल मन से खग बोले 

  पलकों की पालकी पर भाव सजाए  

कहो न खग! मनस्वी ने नयनों के पट खोले।


हे सखी! गाथा विश्व में वैभव सम्पन्नता संग 

समझ के दरिया में डूबे मानव व्यवहार की

आत्मछटपटाहट प्राबल्यता प्राप्ती की मंशा 

खंडित चित्त के किवाडों के दुर्व्यवहार की।


 अनभिज्ञ मानव समझे स्वयं को आत्मज्ञानी

ज्यों कर्म कारवाँ बढ़े कोलाहल की झंकार 

सत,रज, तम ठूँठ हुए उजड़े चित्त के मनोभाव 

भ्रम यवनिका मन-दर्पण,धूल-मिट्टी मोह भार।


द्वेष क्रोध को धार लगाते, छूटा प्रीत का हार 

हृदय पाषाण, भाव मरु,लू के थपेड़े हैं स्वभाव

ताप बढ़े काया का ज्यों  किरणों का प्रहार 

स्वार्थसिद्धता पट्टी आँखों पर अतृप्त हैं भाव।


नहीं!नहीं!!नहीं!!!खग,मानव ज्ञाता, है विश्वास

जीवन कलाएँ अर्जित करना,है इसका स्वभाव

बोध-निर्बोध भाव तत्त्व बाँधे, बंधुत्त्व अंबार

पीड़ित पीड़ा में उलझा समझे न विकारों का प्रभाव।


निर्मल-निश्छल स्वभाव,है करुणा का अवतार 

भावों-अभावों से जूझता,टाटी सुखों की बाँधता 

बंजर जीवन भाता किसको? हे खग!

विचार उचटते अंतरमन के,सुख का छप्पर टूटता!


अविश्वास बढ़ा भू पर,देख! छाए बादल विश्वास के

पुरवाई प्रीत, बरसात आस्था के नवांकुर खिलाएगी

वृक्षों पर पात संबंधों के अंकुरित हो खिल जाएँगे 

डाली-डाली लदी फूलों से धरा दुल्हन-सी सज जाएँगी।


द्वेष धुलेगा एक दिन,मन-दर्पण रश्मियों-सा चमकेगा  

हे खग!आभा मुख पर,पुलकित मानवता हर्षाएगी

निश्छल झरना झरे कर्मण्यता का, हैं सौरभ से भाव 

शब्द सुमन सुवासित हो हृदय शीतल कर जाएँगी।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

प्रथम द्वितीय एवं तृतीय भाग के लिंक 👇

१. निर्वाण (मनस्वी की बुद्ध से प्रीत) 

२. निर्वाण ( स्वप्न की अनुगूँज) 

३ निर्वाण (चित्त की भित्तियाँ) 

53 टिप्‍पणियां:

  1. 'मन टूटा, तन टूटा,टूटा न अटूट विश्वास

    मोह-माया का टूटा पिंजर मुक्त हुई श्वाँस

    देह धरती पर जले दीप-सी आत्मा में उच्छवास

    मनस्वी को मिले बुद्ध पहना उन्हीं का लिबास।'

    सुंदर कविता! आनंद आ गया।

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    1. आभारी हूँ आदरणीय अरविन्द जी सर सराहनासम्पन्न प्रतिक्रिया मिली।मनोबल बढ़ाने हेतु अनेकों आभार।
      सादर

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  2. "मनस्वी की बुद्ध से प्रीत"
    बहुत मार्मिक और भावभीनी प्रस्तुति।

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    1. आभारी हूँ आदरणीय शास्त्री जी सर आपकी प्रतिक्रिया संबल है मेरा।आशीर्वाद बनाए रखे।
      सादर

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  3. बहुत ही बढ़िया , मन को छू गई ये कविता अनिता जी, बधाई हो

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    1. आभारी हूँ आदरणीय ज्योति जी आपकी सराहनीय प्रतिक्रिया मिली।सादर

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  4. मन टूटा, तन टूटा,टूटा न अटूट विश्वास
    मोह-माया का टूटा पिंजर मुक्त हुई हर श्वाँस
    देह धरती पर जले दीप-सी आत्मा में उच्छवास
    मनस्वी को मिला बुद्धत्व पहना उन्हीं सा लिबास।


    पूरी कविता बेहतरीन है....और ये चार पंक्तियां उनमें भी श्रेष्ठतम...
    बधाई एवं हार्दिक शुभकामनाएं 🙏

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  5. दिल से आभार आदरणीय दी मनोबल बढ़ाने हेतु।
    आशीर्वाद बनाए रखे।
    सादर

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  6. मनस्वी और महात्मा बुद्ध साथ ही आपने लिखा है भाग-१ ..दूसरे भाग की प्रतीक्षा रहेगी । पूरी कविता बहुत बेहतरीन
    लगी । बधाई एवं शुभकामनाएं ।

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    1. दिल से आभार आदरणीय मीना दी।
      कोशिश करुँगी आपकी भावनाओं पर खरा उतरने की।
      स्नेह आशीर्वाद बनाए रखे।
      सादर

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    2. सादर नमस्कार दी।
      यहाँ महात्मा बुद्ध से तात्पर्य गौतम बुद्ध से नहीं है यह पात्र प्रतीक हैं। (आध्यातम का)
      मनस्वी (मानव का अंस से लिया गया है)
      यहाँ दोनों हो पात्र काल्पनिक है।
      सादर

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  7. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" ( 2057..."क्या रेड़ मारी है आपने शेर की।" ) पर गुरुवार 04 मार्च 2021 को साझा की गयी है.... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!



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    1. सादर आभार आदरणीय सर पाँच लिंकों पर स्थान देने हेतु।
      सादर

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  8. सादर नमस्कार,
    आपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 05-03-2021) को
    "ख़ुदा हो जाते हैं लोग" (चर्चा अंक- 3996)
    पर होगी। आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    धन्यवाद.


    "मीना भारद्वाज"

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    1. सादर आभार आदरणीय मीना दी चर्चामंच पर स्थान देने हेतु।
      सादर

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  9. उत्तर
    1. बहुत बहुत शुक्रिया सर आपकी प्रतिक्रिया मिली।
      सादर

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  10. जीवनपथ के सब साथी झरे
    ज्यों पतझड़ पेड़ से पाती झरे
    उलझीं-उलझीं जब जीवन लताएँ
    रथ खींचे संग सत गाथाएँ ।
    बहुत ही सुंदर प्रस्तुति हेतु बधाई आदरणीया अनीता जी।।।।

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    1. आभारी हूँ सर आपकी प्रतिक्रिया मिली।
      सादर

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  11. वाह अद्भुत!
    प्रतीकात्मक शैली में लिखी गई गहन सुंदर रचना।
    बुद्ध यहां प्रतीक है सिद्धत्व का, मनस्वी प्रतीक है किसी ऐसी मानवी या नारी का जिसके मानस में सांसारिक जंजालों से निकल कर मुक्ति को पाने की चाह जगी है और वो प्रयास रत है संसारिक बंधनों को छोड़कर कैसे बुद्धत्व को अग्रसर हो ।और राह में आते सभी प्रारब्ध और आकर्षनों से स्वयं को कैसे दूर करें।
    बहुत बहुत सुंदर सृजन।
    भावपक्ष सुदृढ़।
    सुंदर शब्दों का प्रयोग।
    अभिनव अभिराम।
    दूसरे भाग का इंतजार रहेगा।
    सस्नेह।

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    1. दिल से आभार आदरणीय कुसुम दी सारगर्भित प्रतिक्रिया हेतु। आपने हमेशा मेरा मनोबल बढ़ाया है एक बार फिर अनेकों अनेकों आभार दिल से।
      स्नेह आशीर्वाद यों ही बनाए रखे।
      सादर

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  12. बेहतरीन रचना सखी 👌👌

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    1. बहुत बहुत आभार आदरणीय अनुराधा जी।
      सादर

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  13. वाह ! बुद्धत्व की यात्रा और मंजिल तक पहुँचने का सुंदर चित्रण

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  14. बुद्धत्व मिल जाय तो माया मोह सब अपने आप नदारद हो जाता है

    बहुत सुन्दर

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    1. दिल से आभार आदरणीय कविता रावत जी।
      सादर

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  15. बड़ी प्रभावी कविता है अनीता जी यह । अभिनंदन ।

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    1. आभारी हूँ आदरणीय जितेंद्र माथुर जी।
      सादर

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  16. मनस्वी और बुद्धत्त्व एकाकार हो गए . गहन भावाभिव्यक्ति .

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    1. आभारी हूँ आदरणीय संगीता दी जी।
      सादर

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  17. हर छंद अपने आप में परिपूर्णता लिए हुए..अध्यात्म और दर्शन दोनों का अनोखा चित्रण..

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  18. उत्तर
    1. आभारी हूँ आदरणीय गगन शर्मा जी सर।
      सादर

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  19. वाह!प्रिय अनीता ,अद्भुत सृजन ।

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  20. दुख सुख के इस भंवर जाल में उलझते सुलझते मनस्वी बुद्धत्व की ओर अग्रसर है....।
    इच्छा अनिच्छा के खेल से मुक्ति पाने का क्रम में तन मन तोड़कर विश्वास जुटाकर बुद्धत्व को पा उनका लिबास पहन मनस्वी आगे के सफर पर चल पड़ा है....भाग एक बहुत ही प्रभावशाली मनमुग्ध करता लाजवाब बन पड़ा है ...अगले भाग के इंतजार में...

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    1. सुंदर और सारगर्भित प्रतिक्रिया हेतु तहे दिल से आभार आदरणीय सुधा दी।
      सादर

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  21. कोई जवाब नही लाजवाब लेखन

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    1. आभारी हूँ आदरणीय शेरु सोलंकी जी सर।
      सादर

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  22. मार्मिक एवम भावपूर्ण रचना।

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    1. दिल से आभार आदरणीय उर्मिला दी जी।
      सादर

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  23. बहुत ही सुंदर सृजन, अनिता।

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  24. देह धरती पर जले दीप-सी आत्मा में उच्छवास

    मनस्वी को मिला बुद्धत्व पहना उन्हीं-सा लिबास।

    बहुत सुंदर हृदयस्पर्शी सृजन प्रिय अनीता

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    1. दिल से आभार आदरणीय कामिनी दी जी
      सादर

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  25. देह धरती पर जले दीप-सी आत्मा में उच्छवास
    मनस्वी को मिला बुद्धत्व पहना उन्हीं-सा लिबास।

    बहुत सुंदर रचना 🌹🙏🌹

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय शरद जी।
      सादर

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  26. लम्बी कविता की सुंदर शुरूआत

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  27. बहुत सुन्दर अनीता !
    ऐसे काव्य-प्रयोग में मेरी अपनी गति नहीं है किन्तु मैंने इसका भरपूर आनंद उठाया.
    सबसे अच्छी बात मुझे इस कविता में यह लगी कि कथा कहने में तुम्हारा प्रयास सहज भी है और उस में प्रवाह भी है.

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    1. आभारी हूँ आदरणीय सर।
      अत्यंत हर्ष हुआ आपकी सार्गर्भित प्रतिक्रिया प्राप्त हुई।
      इस दिशा में क़दम बढ़ाना सार्थक है मेरा।
      आशीर्वाद बनाए रखे।
      सादर

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