नाद भरा उड़ता जीवन देख
ठहरी है निर्बोध भोर की चंचलता
दुपहरी में उघती उसकती इच्छाएँ
उम्मीद का दीप जलाए बैठी साँझ
शून्य में विलीन एहसास के ठहरे हैं पदचाप।
यकायक जीवन चक्र भी शिथिल होता गया
एक अदृश्य शक्ति पैर फैलाने को आतुर है
समय की परिधि से फिसलती परछाइयाँ
पाँवों को जकड़े तटस्थ लाचारी
याचनाओं को परे धकेलती-सी दिखी।
काया पर धधकते फफोले कंपित स्वर
किसकी छाया ? कौन है ?
सभी प्रश्न तो अब गौण हैं
मेघों का मानसरोवर से पानी लेने जाना
कपासी बादलों में ढलकर आना भी गौण है।
चिंघाड़ते हाथियों के स्वर में मदद की गुहार
व्याघ्रता से विचलित बस एक दौड़ है
गौरया की घबराहट में आत्मरक्षा की पुकार
हरी टहनियों का तड़प-तड़पकर जल जाना
कपकपाती सांसों का अधीर हो स्वतः ठहर जाना।
एक लोटा पानी इंद्र देव का लुढ़काना
झूठ का शीतल फोहा फफोलों पर लगाना
दूधिया चाँदनी में तारों का जमी पर उतरना
निर्ममता के चक्रव्यूह में मानव को उलझा देखा
जलती देह का जमी पर छोड़ चले जाना
कविता की कोपलें बन बिखरा एक यथार्थ है।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'