शनिवार, जुलाई 31

मनवार करे मनड़ो ढोला


मनवार करे मनड़ो  ढोला
 कद मनावा रुठ्या मीत।
गुड़-शक्कर रो घोळ घौलियो 
 मिठे जल स्यूँ सींची प्रीत।।

 बेल बूंटा बढ्या घणेरा
अंगना मंजरी फूले 
 प्रीत बादली छींटा छलके 
 झड़ी झूमती झुल्या झूले 
 सूना ढोला आज मालियो 
 राचे काजल कुंप गीत।।

गोटा-पत्ती ओढ़ लहरियो 
पछुआ झांझरी झंकाव
गाँव-गलियाँ घूम अडाइयाँ
पाखी पुन मुग्ध लहराव  
धुन छेड़ मन भावन गडरियो
पल्लू पगला उलझ रीत।।

 धरती गोदां सोवे सुपणो
अंग-अंग अनंग उमड़े
सांझ  लालड़ी उजलो मुखड़ो
 अंबर आँचल आस जड़े 
फूला में पद छाप निहारूं 
 प्रेम हृदय पावन पुनीत।।

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

शब्द-अर्थ

अडाइयाँ-मैदानी भूमि
मालियाँ=  घर के ऊपरी भाग का मुख्य कक्ष 
 ढोला-प्रिय
मनवार - स्वागत करना
घणेरा-बहुत सारे
लहरियों-मिश्रित रंगों का प्रिंट जो दुपट्टे, साड़ी और ओढ़नी में होता है 
गोदां -गोद में
सुपणो- स्वप्न

गुरुवार, जुलाई 22

ऋतु सुवहानी सावण की



बोल कोयलड़ी मीठा बोल्य
ऋतु सुहावनी सावण की।
झड़ी लागी है चौमास की
आहट पाहुन आवण की।।

हरी चुनरिया ओढ़ी धरती
घूम घटायाँ घाल्य घेर
चपला गरजती बाड़ा डोल्य
चूळा फूंक हुई अबेर
डाळी जईया झूम जिवड़ो 
पूर्वा पून सतावण की।। 

अंबर छाई बदरी काली
गोखा चढ़ी उजली धूप
पुरवाई झाला दे बुलाव 
फूल-पता रो निखर रूप
 नाचे पंख पसार मोरनी
 हूक उठी है गांवण की।।

बाग-बगीचा झूल्या पड़ ग्या 
कुआँ ऊपर गूँजे गीत
कसूमल कली पुष्प लहराय
मेह छींटा छिटके प्रीत
गिगनार चढ़ो चाँद ताकतो
मनसा नींद चुरावण की।।

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

सोमवार, जुलाई 19

समय दरिया



 समय दरिया में डूब न जाऊँ माझी

पनाह पतवार में जीवन पार लगाना है 

भावनाओं के ज्वार-भाटे से टकरा

अंधकार के आँगन में दीप जलाना है।


शांत लहरों पर तैरते पाखी के पंख

परमार्थ के अलौकिक तेज से बिखरे 

चेतना की चमक से चमकती काया

उस पाहुन को  घरौंदे में पहुँचाना है।


चराचर की गिरह से मुक्त हुए हैं स्वप्न

शून्य के पहलू में बैठ लाड़ लड़ाना है 

अंतस छिपी इच्छाओं का हाथ बँटाते

आवरण श्वेत जलजात से करना है।


नदी के गहरे में बहुत गहरे में उतर

अनगढ़ पत्थरों पर कविता को गढ़ते

 सीपी-से सत्कर्म कर्मों को पहनाकर 

झरे मृदुल वाणी ऐसा वृक्ष लगाना है।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

गुरुवार, जुलाई 15

पगलां माही कांकर चुभया 



 पगलां माही कांकर चुभया 

 जूती बांध्य बैर पीया।

 छागळ पाणी छळके आपे 

थकया सांध्य पैर पीया।।


कुआँ जोहड़ा ताळ-तळेया

बावड़ थारी जोव बाट

बाड़ करेला पीळा पड़ ग्यो 

 सून डागळ ढ़ाळी खाट

मिश्री बरगी  बातां थारी 

नींद  होई गैर पीया।।


धरती सीने डाबड़ धँसती 

 खिल्य कुंचा कोरा फूळ 

मृगतृष्णा मंथ मरु धरा री

खेळ घणेरो खेल्य धूळ 

डूह ऊपर झूंड झूलस्या

थान्ह पुकार कैर पीया।।


 रात सुहाणी शीतळ माटी 

ठौर ढूंढ़ रया बरखाण 

दूज चाँद सो सोवे मुखड़ो

आभ तारक सो अभिमाण 

छाँव प्रीत री बणी खेजड़ी 

चाल्य पथ पर लैर पीया।।


@अनीता सैनी 'दीप्ति '

रविवार, जुलाई 11

शब्द


 घनिष्ठ तारतम्यता ही कहेंगे 

अशोक के पेड़ का सहचर होना 

 कोयल गौरेया का ढेरों शब्द चोंच में दबाकर लाना 

मीठे स्वर में प्रतिदिन सुबह आस-पास फैलाना 

मन की प्रवृत्ति ही है कि वह 

रखता है शब्दों का लेखा-जोखा

शब्दों का संचय प्रेम को प्राप्त करने जैसा ही है

मौन, मौन ही मौन,मौन में मुखर हुए शब्द

तब तक ही शब्द रहते हैं जब तक कि 

एहसास शून्य से संश्लिष्ट हो नहीं गढ़ता एक चेहरा 

चेहरा बनते ही चिपक जाता है हृदय की भित्ति से 

साँसें छलनी बन छनतीं हैं 

स्वयं के गढ़े सुविधा में पगे विचारों को 

विचारों का तेज शब्दों से छवि गढ़ता है

छवि के प्रति पनपती है प्रीत ज्यों मीरा की। 


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

शुक्रवार, जुलाई 9

रुठ्या सावण भादो


बदळी गरजी मेह न बरसो 

घाम घूमतो फिरे गळी  

तेज़ ताप-स्यूँ तपती काया 

जिवड़ो जोवे छाँव भळी।।


रीत प्रीत रा झूलस्या पग

आभे ज्वाला बरस रही 

बेला बूटा बाजर सुख्या

मूँग-मोठ ने चैन नही 

पावस बाट जोवता हलधर

कठ रुठ्यो तू इंद्र बळी।।


तारा ढळती रात सोवणी 

मरु धरा री धधके गोद 

सूनी खाटा उड़ती माट्टी 

पाखी पाणी खोज्य होद 

ताल-तलैया रित्या पोखर

नीर वाहिनी रूठ चळी।।


हूँक हुँकारे पपयो पी की 

कोयल मीठा बोल्य बोळ 

नाचे पंख पसार मोरनी

सावण भादु है अणमोळ 

बादळ  बदळे वेश घणेरा

सब के मन में आस पळी।।


@अनीता सैनी  'दीप्ति'

सोमवार, जुलाई 5

संघर्ष





 अमृत कलश से छलकती 

अमृत्व के लिबास में लिपटी 

किसी की धड़कन तो किसी की

सांसें बन जीवन में डोलती 

 धरा के नयनों से उतर 

 कपोलों से लुढ़ककर बोलती 

मिट्टी के कण-कण को बींधती

जिजीविषा की कहानी गढ़ती

साँवली सूरत सन्नाटा ओढ़े

थकती न हारती मंद-मंद मुस्कुराती

चराचर के बीचोबीच पालथी मार बैठी 

ऐसे ही एक संघर्ष की बूँद को

 मैंने अमृतपान करते देखा।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

शुक्रवार, जुलाई 2

वाकपटु


  [ वाकपटु ]

 बार-बार वर्दी क्यों छिपाती है, माँ ?

मेरे पहनने पर प्रतिबंध 

 इतना क्यों घबराती है, माँ ?

मोह में बँधी है इसलिए या 

किनारा अकेलेपन से करती है, माँ ?


ऊहापोह में उलझी, है उदास

कुछ कहती नहीं क्यों है ख़ामोश

विचारों की साँकल से जड़ी ज़बान 

 कल्पना के पँख पर सवार इच्छाएँ 

क्यों उड़न भरने से रोकतीं हैं, माँ ? 


खुला आसमां पर्वत की छाँव

प्रकृति संग,

 साथ पंछियों का भाता बहुत 

चाँद-सितारों से मिलकर बतियाना 

 बड़े होते अंगजात देख 

क्यों अधीर हो जाती है,  माँ ?


प्रीत के लबादे में लिपटी 

वर्दी खूँटी पर टंगी बुलाती है

 सितारे कतारबद्ध जड़े हों कंधे पर

 ऐसे विचार पर विचारकर

वाकपटु कह 

 क्यों उद्विग्न हो जाती है, माँ ?


@अनीता सैनी 'दीप्ति'