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गुरुवार, सितंबर 23

बोलना चाहिए इसे अब



एक समय पहले अतीत
ताश  के पत्ते खेलता था
 नीम तो कभी
पीपल की छाँव में बैठता था 
न जाने क्यों ?
आजकल नहीं खेलता
 घूरता ही रहता है 
 बटेर-सी आँखों से 
घुटनों पर हाथ
 हाथों पर ठुड्डी टिकाए
 परिवर्तनशील मौसम 
ओले बरसाता 
कभी भूचाल लाता 
अतीत का सर 
फफोलों  से मढ़ जाता 
धूल में सना चेहरा 
पेंटिग-सा लगता
नाक बढ़ती 
कभी घटती-सी लगती 
पेट के आकार का 
भी यही हाल है 
पचहत्तर वर्षों से पलकें नहीं झपकाईं 
 बोलना चाहिए इसे अब
नहीं बोलता।
वर्तमान सो रहा है 
बहुत समय से
आजकल दिन-रात नहीं होते
 पृथ्वी एक ही करवट सोती है
बस रात ही होती है 
पक्षी उड़ना भूल गए 
पशु रंभाना 
दसों दिशाएँ  
एक कतार में खड़ी हैं 
मंज़िल एक दम पास आ गई 
जितना अब आसान हो गया 
न जाने क्यों इंसान भूल गया
वह इंसान है
रिश्ते-नाते सब भूल गया 
 प्रकृति अपना कर्म नहीं भूली
हवा चलती है
पानी बहता है पेड़ लहराते हैं
 पत्ते पीले पड़ते हैं 
धरती से नए बीज अंकुरित होते हैं 
वर्तमान अभी भी गहरी नींद में है
उठता ही नहीं 
उसे उठना चाहिए 
दौड़ना चाहिए
किसी ने कहा बहकावे में है 
 स्वप्न में तारों से सजा
 अंबर दिखता है इसे 
मिनट-घंटे बेचैन हैं वर्तमान के
मनमाने के व्यवहार से
 अगले ही पल
यह अतीत बन जाएगा
फिर घूरता ही रहेगा 
बटेर-सी आँखों से 
घुटनों पर  हाथ
हाथों पर ठुड्डी टिकाए।

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

गुरुवार, सितंबर 16

ममतामयी हृदय



 ममतामयी हृदय पर

अंकुरित शब्दरुपी कोंपलें 

काग़ज़ पर बिखर

जब गढ़ती हैं कविताएँ 

सजता है भावों का पंडाल 

प्रेम की ख़ुशबू से 

मुग्ध मानव मन का

मुखरित होता है पोर-पोर  

अंजूरी से ढुलती संवेदनाएँ

  स्याही में घुल 

शाख़ पर सरकती हैं 

हरितमय आभा लिए 

सकारात्मकता ओस बन 

चमकती है 

पत्तों पर मोती-सी

बलुआ किणकियाँ 

 घोलती हैं करुणा

कलेज़े में

बंधुत्त्व की बल्लरियों के 

नहीं उलझते सिरे 

वो फैलते ही जाते हैं 

स्वच्छन्द गगन में

वात्सल्य की महक लिए 

रश्मियों के  छोर को थामें।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

गुरुवार, सितंबर 9

प्रभा प्रभाती


 प्रभा प्रभाती झूमे गाये 

मुट्ठी मोद स्वप्न लाई।

बैठ चौखट बाँटे उजाला 

बिखरे हैं भाव लजाई।।


चाँद समेटे धवल चाँदनी

अंबर तारे लूट रहा।

प्रीत समीरण दाने छाने  

पाखी साथ अटूट रहा।

भोर तारिका करवट बदले 

पलक पोर पे हर्षाई।।


चहके पंख पसार पखेरू

धरणी आँगन गूँज रहा।

छाँव कुमुद गढ़ आँचल ओढ़ा 

तपस टोहता कूँज  रहा।

नीहार मुकुट पहने धरणी 

सजल दूब है इठलाई।।


 कोंपल मन फूटे इच्छाएँ

 बूँटा रंगे रंगरेज।

डाली सौरभ बन लहराए

गढ़े पुरवाई जरखेज।

होले-होले डोले रश्मियाँ

स्वर्णिम आभा है छाई।।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

बुधवार, सितंबर 1

उस रोज़



 उस रोज़ 

घने कोहरे में

भोर की बेला में

सूरज से पहले

तुम से मिलने 

 आई थी मैं

लैंप पोस्ट के नीचे

तुम्हारे इंतज़ार में

घंटो बैठी रही 

एहसास का गुलदस्ता

दिल में छिपाए 

पहनी थी उमंग की जैकेट

विश्वास का मफलर

गले की गर्माहट  बना 

कुछ बेचैनी बाँटना

चाहती थी तुमसे

तुम नहीं आए 

रश्मियों ने कहा तुम

निकल चुके हो

 अनजान सफ़र पर।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'