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गुरुवार, सितंबर 16

ममतामयी हृदय



 ममतामयी हृदय पर

अंकुरित शब्दरुपी कोंपलें 

काग़ज़ पर बिखर

जब गढ़ती हैं कविताएँ 

सजता है भावों का पंडाल 

प्रेम की ख़ुशबू से 

मुग्ध मानव मन का

मुखरित होता है पोर-पोर  

अंजूरी से ढुलती संवेदनाएँ

  स्याही में घुल 

शाख़ पर सरकती हैं 

हरितमय आभा लिए 

सकारात्मकता ओस बन 

चमकती है 

पत्तों पर मोती-सी

बलुआ किणकियाँ 

 घोलती हैं करुणा

कलेज़े में

बंधुत्त्व की बल्लरियों के 

नहीं उलझते सिरे 

वो फैलते ही जाते हैं 

स्वच्छन्द गगन में

वात्सल्य की महक लिए 

रश्मियों के  छोर को थामें।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

35 टिप्‍पणियां:

  1. सादर नमस्कार,
    आपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार (17-09-2021) को "लीक पर वे चलें" (चर्चा अंक- 4190) पर होगी। चर्चा में आप सादर आमंत्रित हैं।
    धन्यवाद सहित।

    "मीना भारद्वाज"

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    उत्तर
    1. सादर आभार आदरणीय मीना दी चर्चामंच पर स्थान देने हेतु।
      सादर

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  2. कविताएँ संवेदना लिए होती हैं । खूबसूरत अभिव्यक्ति ।

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    1. आभारी हूँ आदरणीय संगीता दी जी।
      सादर

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  3. बहुत सुंदर सृजन।

    जवाब देंहटाएं
  4. पवित्रतम एवं उच्चतम भावों का अति सुन्दर सम्प्रेषण हृदय को कोमल स्पर्श से अभिभूत कर रहा है । बहुत ही सुन्दर सृजन ।

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    उत्तर
    1. आभारी हूँ आदरणीय अमृता दी जी।
      सादर

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  5. अति सुन्दर शब्द भाव अभिव्यक्ति!!

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    1. आभारी हूँ आदरणीय अनुपमा दी जी।
      सादर

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  6. उत्तर
    1. आभारी हूँ आदरणीय संदीप जी सर।
      सादर

      हटाएं
  7. ममतामयी हृदय पर

    अंकुरित शब्दरुपी कोंपलें

    काग़ज़ पर बिखर

    जब गढ़ती हैं कविताएँ

    सुंदर रचना।

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  8. संवेदनशील भावों को व्यक्त करती गहन अभिव्यक्ति अनु।

    सस्नेह।

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    1. आभारी हूँ आदरणीय श्वेता दी जी।
      सादर

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  9. बहुत ही प्यारी रचना!

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  10. सही कहा जहाँ सिरे उलझे वहाँ बन्धुत्व कहाँ।
    सुंदर वात्सल्य छलकते भाव ।
    अभिनव सृजन।

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    1. आभारी हूँ आदरणीय कुसुम दी जी।
      सादर

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  11. बंधुत्त्व की बल्लरियों के

    नहीं उलझते सिरे

    वो फैलते ही जाते हैं

    स्वच्छन्द गगन में

    वात्सल्य की महक लिए

    रश्मियों के छोर को थामें।

    वात्सल्य और बन्धुत्व विश्वास का बंधन है फिर उलझन ने नहीं हो सकती ...बहुत ही सुन्दर अप्रतिम भाव...
    वाह!!!

    जवाब देंहटाएं
  12. बंधुत्त्व की बल्लरियों के

    नहीं उलझते सिरे

    वो फैलते ही जाते हैं

    स्वच्छन्द गगन में

    वात्सल्य की महक लिए

    रश्मियों के छोर को थामें।

    वात्सल्य और बन्धुत्व विश्वास का बंधन है फिर उलझन ने नहीं हो सकती ...बहुत ही सुन्दर अप्रतिम भाव...
    वाह!!!

    जवाब देंहटाएं
  13. सुंदर भाव व्यक्त करती रचना।

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  14. आत्मीय सौंदर्य बिखेरती उत्कृष्ट भावों भरी रचना ।

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    उत्तर
    1. आभारी हूँ आदरणीय जिज्ञासा दी जी।
      सादर

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  15. बहुत सुन्दर !
    कविता में यदि मातृत्व-भाव की प्रधानता होगी तो उसमें निश्छलता और माधुर्य का आना तो स्वाभाविक बात होगी.

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    1. आभारी हूँ सर आपकी प्रतिक्रिया संबल है मेरा।
      आशीर्वाद बनाए रखें।
      सादर प्रणाम

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