ममतामयी हृदय पर
अंकुरित शब्दरुपी कोंपलें
काग़ज़ पर बिखर
जब गढ़ती हैं कविताएँ
सजता है भावों का पंडाल
प्रेम की ख़ुशबू से
मुग्ध मानव मन का
मुखरित होता है पोर-पोर
अंजूरी से ढुलती संवेदनाएँ
स्याही में घुल
शाख़ पर सरकती हैं
हरितमय आभा लिए
सकारात्मकता ओस बन
चमकती है
पत्तों पर मोती-सी
बलुआ किणकियाँ
घोलती हैं करुणा
कलेज़े में
बंधुत्त्व की बल्लरियों के
नहीं उलझते सिरे
वो फैलते ही जाते हैं
स्वच्छन्द गगन में
वात्सल्य की महक लिए
रश्मियों के छोर को थामें।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
सादर नमस्कार,
जवाब देंहटाएंआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार (17-09-2021) को "लीक पर वे चलें" (चर्चा अंक- 4190) पर होगी। चर्चा में आप सादर आमंत्रित हैं।
धन्यवाद सहित।
"मीना भारद्वाज"
सादर आभार आदरणीय मीना दी चर्चामंच पर स्थान देने हेतु।
हटाएंसादर
कविताएँ संवेदना लिए होती हैं । खूबसूरत अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंआभारी हूँ आदरणीय संगीता दी जी।
हटाएंसादर
बहुत सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया।
हटाएंसादर
बहुत ही सुंदर🌻
जवाब देंहटाएंआभारी हूँ अनुज।
हटाएंसादर
पवित्रतम एवं उच्चतम भावों का अति सुन्दर सम्प्रेषण हृदय को कोमल स्पर्श से अभिभूत कर रहा है । बहुत ही सुन्दर सृजन ।
जवाब देंहटाएंआभारी हूँ आदरणीय अमृता दी जी।
हटाएंसादर
अति सुन्दर शब्द भाव अभिव्यक्ति!!
जवाब देंहटाएंआभारी हूँ आदरणीय अनुपमा दी जी।
हटाएंसादर
सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंआभारी हूँ आदरणीय संदीप जी सर।
हटाएंसादर
ममतामयी हृदय पर
जवाब देंहटाएंअंकुरित शब्दरुपी कोंपलें
काग़ज़ पर बिखर
जब गढ़ती हैं कविताएँ
सुंदर रचना।
आभारी हूँ अनुज।
हटाएंसादर
संवेदनशील भावों को व्यक्त करती गहन अभिव्यक्ति अनु।
जवाब देंहटाएंसस्नेह।
आभारी हूँ आदरणीय श्वेता दी जी।
हटाएंसादर
सुंदर रचना!
जवाब देंहटाएंआभारी हूँ आदरणीय सर।
हटाएंसादर
सुंदर
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया सर।
हटाएंसादर
बहुत ही प्यारी रचना!
जवाब देंहटाएंआभारी हूँ मनीषा जी।
हटाएंसादर
सही कहा जहाँ सिरे उलझे वहाँ बन्धुत्व कहाँ।
जवाब देंहटाएंसुंदर वात्सल्य छलकते भाव ।
अभिनव सृजन।
आभारी हूँ आदरणीय कुसुम दी जी।
हटाएंसादर
बंधुत्त्व की बल्लरियों के
जवाब देंहटाएंनहीं उलझते सिरे
वो फैलते ही जाते हैं
स्वच्छन्द गगन में
वात्सल्य की महक लिए
रश्मियों के छोर को थामें।
वात्सल्य और बन्धुत्व विश्वास का बंधन है फिर उलझन ने नहीं हो सकती ...बहुत ही सुन्दर अप्रतिम भाव...
वाह!!!
आभारी हूँ आदरणीय सुधा दी जी।
हटाएंसादर
बंधुत्त्व की बल्लरियों के
जवाब देंहटाएंनहीं उलझते सिरे
वो फैलते ही जाते हैं
स्वच्छन्द गगन में
वात्सल्य की महक लिए
रश्मियों के छोर को थामें।
वात्सल्य और बन्धुत्व विश्वास का बंधन है फिर उलझन ने नहीं हो सकती ...बहुत ही सुन्दर अप्रतिम भाव...
वाह!!!
सुंदर भाव व्यक्त करती रचना।
जवाब देंहटाएंआभारी हूँ आदरणीय ज्योति बहन।
हटाएंसादर
आत्मीय सौंदर्य बिखेरती उत्कृष्ट भावों भरी रचना ।
जवाब देंहटाएंआभारी हूँ आदरणीय जिज्ञासा दी जी।
हटाएंसादर
बहुत सुन्दर !
जवाब देंहटाएंकविता में यदि मातृत्व-भाव की प्रधानता होगी तो उसमें निश्छलता और माधुर्य का आना तो स्वाभाविक बात होगी.
आभारी हूँ सर आपकी प्रतिक्रिया संबल है मेरा।
हटाएंआशीर्वाद बनाए रखें।
सादर प्रणाम