बेटियों के हृदय पर
किसने खड़ी की होंगीं ?
गगनचुंबी
कठोर विचारों की ये दीवारें
जरुर जिम्मेदारियों ने
लिबास बदल
मुखौटा लगाया है
लोक-लाज में डूबा
भ्रम कहता है
स्वतः ही जीवन भँवर में
बेटियाँ बेड़ियों में उलझी हैं!
नहीं! नहीं!
कदाचित कोई निर्दयी
ठगी, हठी चित्त ही रहा होगा
बाँधे हैं जिसने अदृश्य
बेड़ियों से बेटियों के पाँव
बेड़ियों के जंजाल से
मुक्त करते हैं स्वयं को
थोड़ा-सा प्रेम,समर्पण
स्वच्छचंद धरा पर बहाते हैं
कठोर विचारों की नींव का
पुनर्निर्माण करते हुए
प्रेम के प्रतिदान से
जिम्मेदारियों के नवीन एहसास से
आसमान के कलेज़े को
चीरते हुए निकली ये अदृश्य
मीनारें गिराते हैं
माँ को बेटी बना
कलेजे से लगाते हैं।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'