यों हीं नहीं;कोई बुनकर बनता
यों हीं नहीं;कोई कविता पनपती
कविता साधना है
तपस्या; तप है किसी का
भूलोक पर देह छोड़
भावों के अथाह सागर में
मिलती है कविता
भाव उलझते हैं देह से
देह सहती है असहनीय पीड़ा
तब बहती है कविता
अंतस की परतों में छिपे भाव
बिंबों के सहारे तय करते हैं
अपना अस्तित्त्व
तब धड़कती है कविता
कविता कोरी कल्पना नहीं है
उसमें प्राण हैं
आत्मा है किसी की
वह देह है
किसी के प्रेम की
किसी के स्वप्न की
किसी के त्याग की
वर्षों की तपस्या है किसी की
कविता मीरा है
बार-बार विष का प्याला पीती है
कविता राधा है
थिरकती है अपने कान्हा के लिए
कविता सीता है
बार-बार अग्नि-परीक्षा से गुज़रती है
कविता प्रकृति है
तुम रौंधते हो वह रो लेती है
तुम सहारा देते हो वह उठ जाती है
तुम प्रेम करते हो वह खिलखिला उठती है
कविता शब्द नहीं है
शब्दों की अथाह गहराई में छिपे भाव है
भाव जो जीना चाहते हैं
पसीजते हैं
व्यवहार में ढलने के लिए
वह भूलोक पर नहीं उतरते
क्योंकि वह कविता है
कविता
कुकून में लिपटी तितली है
उड़ती है
बस उड़ती ही रहती है
कभी मेरे कभी तुम्हारे साथ
सुन रहे हो न तुम!
@अनीता सैनी 'दीप्ति'