रोम-रोम मेरे रमती
श्वांसें कहती हैं कविता
साज सरगम हृदय सजती
जैसे बहती है सरिता।।
मरु में नीर टोह भटकी
मौन धार अविरल बहती।
धूप तपे आकुल मन में
सुधियाँ मट्टी-सी ढहतीं ।
शब्द बंधे सुर-ताल में
उर बहे बनके गर्विता।।
मेघमाला-सी बिखरती
खेलती घर-घर गगन में।
बाट जोहती जोगनियाँ
सांसें सींचती लगन में।
ओढ़ चाँदनी उतरी निशि
ज्यों भाव लहरी नंदिता।।
रंग तितलियों को देती
फूलों में मकरंद भरती।
बाँह लिपटी हैं रश्मियाँ
तरूवर-सी छाँव झरती।
भाल वसुधा के सजाती
कवित अरुणोंदय अर्पिता।।