तुम्हें पता है?
मरुस्थल डकार मारता
नंगे पाँव दौड़ता
चाँद की ओर कूच कर रहा है।
साँप की लकीरें नहीं
इच्छाएँ दौड़ती हैं
देह पर उसकी!
पैर नहीं जलते लिप्सा के ?
तुम्हें पता है क्यों?
घूरना बंद करो!
मुझे नहीं पता क्यों?
पेड़-पौधों पर चलाते हो
वैसे रेगिस्तान पर आरियाँ
कुल्हाड़ियाँ क्यों नहीं चलाते हो ?
इसकी भी शाख क्यों नहीं काटते हो ?
चलो जड़ें उखाड़ते हैं!
मौन क्यों साधे हो?
कुछ तो कहो ?
चलो आँधियों का व्यपार करते हैं!
उठते बवंडर को मटके में ढकते हैं!
धरती का आँगन उजाड़ा
उस पर किताब ही लिखते हैं!
घूर क्यों रहे हो?
चलो तुम्हारी ही जी-हुजूरी करते हैं
क्यों?
तुम्हें नहीं पता क्यों?
@अनीता सैनी 'दीप्ति'