प्रयोगशाला की
परखनली में गर्माती राजनीति
अब गलियों के नुक्कड़ पर
घुलने लगी है साहेब!
दो वक़्त रोटी की फ़िक्र में
भटकती देह
हथियारों के ज़िक्र में
सूखने लगी है
इंसानियत नहीं साहेब!
कूटनीति फूट-फूटकर
करतब दिखाती
ताड़ के पेड़-सी सर उठने लगी है
बुद्धि को लगने लगा है
वो धरती घुमाने लगी है
तराजू में तुलती मानवता
ईमान-धर्म टूट-टूटकर बिखरने लगा है
माया का रचाया तूने कैसा खेल?
पाषाण उचक-उचककर खेलने लगें हैं
जगह बताते रिश्तों की
समझदार हो गए बच्चे साहेब!
अँगुली पकड़कर चलने वाले
बूढ़े माँ-बाप को अब
दुनियादारी समझाने लगे हैं।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
यही सब तो हो रहा है समाज में। राजनीति, छद्म व्यवहार यही सब तो दिखता है आजकल हर ओर।
जवाब देंहटाएंकटु सत्य उकेरती रचना
हृदय से आभार आपका मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु।
हटाएंसादर
सच कितना कुछ बदल रहा है और बदल गई है दुनिया
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
हृदय से आभार आपका आदरणीय कविता दी जी।
हटाएंसादर
वाह! बहुत सुंदर!!!
जवाब देंहटाएंहृदय से आभार आदरणीय सर आपकी प्रतिक्रिया संबल है मेरा।
हटाएंसादर
जगह बताते रिश्तों की
जवाब देंहटाएंसमझदार हो गए बच्चे साहेब!
अँगुली पकड़कर चलने वाले
बूढ़े माँ-बाप को अब
दुनियादारी समझाने लगे हैं।
बहुत सुंदर,सराहनीय कविता ।
हृदय से आभार जिज्ञासा जी मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु।
हटाएंसादर
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (24-4-22) को "23 अप्रैल-पुस्तक दिवस"(चर्चा अंक-4409) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
हृदय से आभार कामिनी जी मंच पर स्थान देने हेतु।
हटाएंसादर
Bahut achha sir
जवाब देंहटाएंजी शुक्रिया।
हटाएंबुद्धि को लगने लगा है
जवाब देंहटाएंवो धरती घुमाने लगी है
तराजू में तुलती मानवता
ईमान-धर्म टूट-टूटकर बिखरने लगा है
बहुत सटीक... इसी भ्रम में मनुष्य खुद को देवता समझने लगा है
सामयिक लाजवाब सृजन
हृदय से आभार सुधा दी जी आपकी प्रतिक्रिया संबल है मेरा।
हटाएंसादर
जगह बताते रिश्तों की
जवाब देंहटाएंसमझदार हो गए बच्चे साहेब!
अँगुली पकड़कर चलने वाले
बूढ़े माँ-बाप को अब
दुनियादारी समझाने लगे हैं।
लाजवाब सृजनात्मकता ।
हृदय से आभार आदरणीय मीना दी जी मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु।
हटाएंसादर
सच को आइना दिखाती बहुत सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंदो वक़्त की रोटी की फ़िक्र में
जवाब देंहटाएंभटकती देह
हथियारों के ज़िक्र में
सूखने लगी है
उम्दा भाव
हृदय से आभार आदरणीय सृजन सार्थक हुआ आपकी प्रतिक्रिया मिली।
हटाएंसादर
इस दौर की तमाम खराबियों के लिए आज के हम बुज़ुर्ग काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार हैं.
जवाब देंहटाएंसिर्फ़ आज की नौजवान पीढ़ी पर हर बुराई की ज़िम्मेदारी थोपना सही नहीं है.
आदरणीय गोपेश मोहन जी सर यह आपका स्नेह है हमारे प्रति परंतु माँ बाप कभी अपने बच्चों को गलत शिक्षा नहीं देते। बच्चों पर निर्भर कि वह उसे किस रूप में ग्रहण करते हैं। अगर स्नेह देना गलत तो फिर वह गुस्से से डिप्रेशन दिखाने लगते हैं। क्या है इतनी सहन शक्ति हम में जितनी आप में थी। मैं बुजुर्ग को कभी गलत नहीं मानती जितनी उन्हें समझ थी सुविधा थी उन्होंने खूब किया। हम क्या कर रहें है?
हटाएंसादर प्रणाम
दुर्दिन समय की परतें खोलती अर्थपूर्ण रचना
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
हृदय से आभार सर उत्साह वर्धन प्रतिक्रिया हेतु।
हटाएंसादर
बहुत खूबसूरत प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंहृदय से आभार आपका.
हटाएंसादर
सार बता कर रख दिया आपने तो अनीता जी...अँगुली पकड़कर चलने वाले
जवाब देंहटाएंबूढ़े माँ-बाप को अब
दुनियादारी समझाने लगे हैं।....वाह
कितना कुछ बदल रहा है और बदल गई है दुनिया परिवारिक व्यस्ताओं के कारण बहुत दिनों बाद ब्लॉग पर आना हुआ पढ़कर अच्छा लगा!
जवाब देंहटाएंहृदय से आभार भास्कर भाई मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु।
हटाएंसादर
समय जो समझाता है वो तो समझना ही पड़ता है साहेब।
जवाब देंहटाएंसही कहा आदरणीय दी आपने, स्नेह आशीर्वाद बनाए रखें।
हटाएंसादर स्नेह