तुम्हें पता है?
मरुस्थल डकार मारता
नंगे पाँव दौड़ता
चाँद की ओर कूच कर रहा है।
साँप की लकीरें नहीं
इच्छाएँ दौड़ती हैं
देह पर उसकी!
पैर नहीं जलते लिप्सा के ?
तुम्हें पता है क्यों?
घूरना बंद करो!
मुझे नहीं पता क्यों?
पेड़-पौधों पर चलाते हो
वैसे रेगिस्तान पर आरियाँ
कुल्हाड़ियाँ क्यों नहीं चलाते हो ?
इसकी भी शाख क्यों नहीं काटते हो ?
चलो जड़ें उखाड़ते हैं!
मौन क्यों साधे हो?
कुछ तो कहो ?
चलो आँधियों का व्यपार करते हैं!
उठते बवंडर को मटके में ढकते हैं!
धरती का आँगन उजाड़ा
उस पर किताब ही लिखते हैं!
घूर क्यों रहे हो?
चलो तुम्हारी ही जी-हुजूरी करते हैं
क्यों?
तुम्हें नहीं पता क्यों?
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (1-5-22) को "अब राम को बनवास अयोध्या न दे कभी"(चर्चा अंक-4417) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
हृदय से आभार कामिनी जी मंच पर स्थान देने हेतु।
हटाएंसादर
कटु यथार्थ का सामयिक चित्रण।
जवाब देंहटाएंसराहनीय रचना ।
हृदय से आभार जिज्ञासा जी।
हटाएंसादर
क्या खूब बढ़िया रचना
जवाब देंहटाएंहृदय से आभार सरिता जी।
हटाएंसादर
'चलो आँधियों का व्यापार करते हैं!
जवाब देंहटाएंउठते बवंडर को मटके में ढकते हैं!' --- बहुत खूब कहा है!
वाह!प्रिय अनीता ..क्या बात है .अद्भुत !
जवाब देंहटाएंहृदय से आभार प्रिय शुभा दी जी।
हटाएंसादर
अनीता, कविता तो तुम्हारी बहुत अच्छी है पर सत्ता-भत्ता-दूध-मलाई खाने वाले देशभक्तों की सदाशयता पर इस तरह के आक्षेप लगाना ख़तरे से खाली नहीं है.
जवाब देंहटाएंजो बेचारे निरंतर रेगिस्तानों की संख्या को और उनकी शोभा को, बढ़ाने में दिन-रात एक कर रहे हैं, उन्हें तुम रेगिस्तानों को उजाड़ने का काम देना चाहती हो.
कल को तुम किसी उल्लू को किसी चमन को हरा-भरा बनाए रखने का काम भी देना चाहोगी.
सादर नमस्कार सर।
हटाएंआर्मी वालों की पत्नियां जब उनसे शादी करती हैं शायद उसी वक़्त से अपना मरण लिखवा लेती हैं। कुछ हालत मारते हैं कुछ समाज,एक देह होती है जो डोलती रहती है। रही बात सत्तासीनो की अब लगता है एक मरी के मरने से कोई प्रलय नहीं आने वाला।सर जिस तरह मनमानी के राज में लोकतंत्र की हत्या हो रही है आम जन कहाँ शब्दों में ढाल सकती है।
जिस देश के नौजवान रोजगार के लिए फांसी पर झूल रहे हैं वहाँ कैसे कोई चुप्पी साध सकता है।
बड़ी मासूम हूँ मैं,कुछ कहाना कहाँ आता है, मैं तो राजस्थान के कुओं के सुखते पानी की बात कर रही हूँ।आने वाले समय में क्या होगा समझ सकते हो सर किसान कहाँ जाएंगे।इसी तरह मरुस्थल फैलता रहा हृदय पर इंसानियत कैसे ज़िंदा रहेगी।
अडाणी को बहुत बहुत बधाई बंदा बड़ा अमीर बन गया। हमने महंगाई की मार झेली आभार तक नहीं कहा
आपका आशीर्वाद अनमोल है मेरे लिए,ऐसे लगता है पिता ने आशीर्वाद दिया हो, आपकी प्रतिक्रिया संबल मेरे लिए।
यों ही बनाए रखें।
सादर प्रणाम
कड़वा सच , बहुत सुंदर रचना आदरणीय ।
जवाब देंहटाएंहृदय से आभार आदरणीय सर।
हटाएंसादर
मरुस्थल में पेड़ों का कटाव वास्तव में चिन्ता जनक है । कविता का आरम्भ बहुत मर्मस्पर्शी और अभिनव लगा । बहुत सुन्दर और सार्थक सृजन ।
जवाब देंहटाएंहृदय से आभार आदरणीय मीना दी जी आपकी प्रतिक्रिया संबल है मेरा।
हटाएंसादर
प्रकृति के हो रहे दोहन का असर कितना कष्टकारी होगा यह शाषकों प्रशाषकों को कभी समझ नहीं आएगा
जवाब देंहटाएंवे तो आंख मूंदे राम भरोसे चल रहें हैं.
प्रकृति और जीवन पर लिखी अर्थपूर्ण और कमाल की रचना.
हृदय से आभार आदरणीय सर उत्साह द्विगुणित हुआ आपकी से सृजन सार्थक हुआ।
हटाएंआशीर्वाद बनाए रखे।
सादर
सत्य से ओत-प्रोत अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंमन के आक्रोश को बाखूबी लिखा है ...
जवाब देंहटाएंहर की इस रचना को अपने हिसाब से देखेगा ... और देखा भी है ... शायद ये रचना की सार्थकता है ... विस्तृत केनवास लिए भाव ऐसे होते हैं ...
हृदय से आभार आदरणीय सर आपकी प्रतिक्रिया संबल है मेरा।
हटाएंसादर
अत्यंत प्रभावी शब्द .... समवेत हो तो प्रलय अवश्य आएगा।
जवाब देंहटाएंहृदय से आभार प्रिय अमृता दी जी आपकी प्रतिक्रिया संबल है मेरा, स्नेह बनाए रखें।
हटाएंसस्नेह आभार
उठते बवंडर को मटके में ढकते हैं!' --- बहुत खूब
जवाब देंहटाएंहृदय से आभार अनुज।
हटाएंसादर