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शुक्रवार, जून 17

नेम प्लेट



मुख्य द्वार पर लगी

नेम प्लेट पर उसका नाम है 

परंतु वह उस घर में नहीं रहता

 माँ-बाप,पत्नी; बच्चे रहते हैं 

हाँ! रिश्तेदार भी आते-जाते हैं 

 कभी-कभार आता है वह भी 

नेम प्लेट पर लिखा नाम देखता है 

नाम उसे देखता है 

 दोनों एक-दूसरे को घूरते हैं 

कुछ समय पश्चात वह 

मन की आँखों से नाम स्पर्श करता है 

तब माँ कहती-

”तुम्हारा ही घर है, मैं तो बस रखवाली करती हूँ। "

पत्नी देखकर नज़रें चुरा लेती है 

और कहती है -

”एक नाम ही तो है जो आते-जाते टोकता है।”

वह स्वयं को विश्वास दिलाता है 

हाँ!  घर मेरा ही है

बैग में भरा सामान जगह खोजता है 

साथ ही फैलने के लिए आत्मविश्वास

ज्यों ही परायेपन की महक मिटती है 

फिर निकल पड़ता है उसी राह पर

सिमट जाना है सामान को उसी बैग में 

कोने, कोनों में सिमट जाते हैं 

 दीवारें खड़ी रहती हैं मौन  

 चप्पलें भी  करती हैं प्रश्न 

 नेम प्लेट पूछती है कौन ?

पहचानता क्यों नहीं कोई ?

डाकिया न दूधवाला और न ही अख़बारवाला 

कहते हैं - "सर मैम को बुला दीजिए।"

स्वयं को दिलाशा देता 

"हाँ! मेरा नाम चलता है न। "

सभी नाम से पहचानते हैं मुझे 

स्वयं पर व्यंग्य साधता

 हल्की मुस्कान के साथ 

 कहता-”घर तो मेरा ही है!

 हाँ! मेरा ही है! परंतु मैं हूँ कहाँ ?"


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

24 टिप्‍पणियां:

  1. डॉ विभा नायक17/6/22, 2:36 pm

    आज के समय में यह स्थिति बहुत आम है। पहले भी रही होगी। आदमी जिस घर को बनाता है, जिसे बनाने में जीवन लगा देता है, उसी घर में से परायेपन की गंध आने लगती है!
    यथार्थ है🙏

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  2. आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शनिवार (18-06-2022) को चर्चा मंच     "अमलतास के झूमर"  (चर्चा अंक 4464)     पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
    -- 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'    

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  3. सहज सरल शब्दों में भावों के अविरल प्रवाह के साथ घर में अपनेपन की पहचान को ढूँढने का भाव बहुत मर्मस्पर्शी है ।

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  4. देश की सेवा में समर्पित उस सैनिक का दर्द इस कविता में बुना गया है जो सिर अपने गांव, घर रिश्ते, नातेदारों में सिर्फ नाम के सहारे जीवन जीता है। जो घर बनवाता तो है लेकिन उसका सुख भोग नहीं पाता। मार्मिक रचना

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  5. बेनामी18/6/22, 10:15 am

    एक सैनिक के मर्म को छूती सत्य का सार लिए सराहनीय लघुकथा.. जिज्ञासा सिंह
    प्रिय अनीता जी, नए फ़ोन में कॉमेंट का ऑप्शन दिक़्क़त कर रहा है ! नाम नहीं शो हो रहा !

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  6. सुंदर अभिव्यक्ति, वाह वाह वाह!

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  7. भावपूर्ण रचना, जो नहीं होकर भी सबके होने का कारण है उसका होना ही वास्तव में होना है

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  8. सच है यह ,बेहद भावपूर्ण लिखा आपने

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  9. एक प्रवासी या सैनिक या कोई और भी वजह से जो समाज, परिवार घर से दूर रहते हैं कभी कभी जो अपने ही आशियाने में अपनों के बीच आते हैं तो न जाने क्यों दूर ब्हाई बेटियों की तरह जो साल दो साल में पीहर आती हैं,और एक पराया पन झलकता है उनके व्यवहार से और जब तक कुछ सहज होने लगता है सबकुछ समेट कर जाने का वक्त आ जाता है ।
    बहुत गहन मर्म स्पर्शी भाव और एहसास गूंथती एक उत्कृष्ट रचना।

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  10. ये आज का सच है...पति-पत्नी भी अपनी अपनी मजबूरियों के चलते अलग रहने को विवश हैं...लेकिन घर पत्नी के ही साथ रहता है...अंतर्द्वंद को उकेरती बेहतरीन कविता...👏👏👏

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  12. माँ जब पिता रुपी वृक्ष में ढलती है तब छाँव और भी ठंडी होती है।
    बहुत ही सुंदर लिखा है।

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  13. वाह!प्रिय अनीता ,क्या बात है ,बहुत खूबसूरत भावों से सजी रचना ।

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  14. घर तो मेरा ही है , नाम चलता है उसका .... बेहद मार्मिक रचना ।

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  15. पहचानता क्यों नहीं कोई ?

    डाकिया न दूधवाला और न ही अख़बारवाला

    कहते हैं - "सर मैम को बुला दीजिए।"

    स्वयं को दिलाशा देता

    "हाँ! मेरा नाम चलता है न। "

    सभी नाम से पहचानते हैं मुझे
    सही कहा एकदम सटीक...
    बस नाम पहचानते हैं उसका सब उसे नहीं...
    महीने बाद कुछ दिन की छुट्टी ...में अपनापन कैसे...बहुत ही हृदयस्पर्शी सृजन।

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  16. घर-घर की तो नहीं पर लाखों-करोड़ों घरों की यही कहानी है. कि घर का मुखिया, घर मुखिया कम और घर में रहने वालों का एटीएम ज़्यादा होता है. उसके अधिकार नाम को होते हैं और उसके कर्तव्य हैं कि कभी ख़त्म होने का ही नाम नहीं लेते.

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  17. बहुत खूबसूरत भावों से सजी रचना ।

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  18. बिलकुल सत्य लिखा है । एक सैनिक अपने घर को किस नजरिए से देखता है बखूबी चित्रित किया है।

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  19. सही है, इस दुनिया में नाम ही तो पहचान है, बहुत सुंदर प्रस्तुति अनीता जी 👍

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