”साहेब!
मख़ौल उड़ाना नहीं भूले।"
कहते हुए-
माँओं ने दुधमुँहे बच्चों की आँखों से
काजल से सने स्वप्न पोंछे
पिताओं ने भाईचारे का खपरैल तोड़ा
ये देख बुज़ुर्गों ने भी चुप्पी साधी
गाय की पहली रोटी छीनी
तो कहीं कौवों की मुंडेर
किसान का कलेवा छूटा तो
वहीं हल ठहर-ठहरकर चलने लगा
अभावग्रस्त संपन्नता को ताकते
सभ्यता के इस दौर में
संभ्रांतों की वृद्धि में इज़ाफ़ा हुआ
शब्द, विचारों में
वर्तमान निखर कर बाहर आया
मुँह फेरने की नई रीत चल पड़ी
"भव्यता का स्वाद क्या चखा साहेब!
घर की नींव न देखी महलों के नक़्शे बना दिए!"
कहते हुए-
फिर समय झुँझलाया
और सूखे पत्तों-सा झड़ने लगा
धैर्य आशाएँ टाँकता-टाँकता खो चुका विवेक
जवान काया कॉम्पिटिशन के नाम पर
कुढ़-कुढ़कर टूटती है
गीली लकड़ी-कंडे भी भीगे-से
मिट्टी का चूल्हा मिट्टी की हांडी
कैसी हवा बुन रहे हो साहेब?
लोग जीवन जीना भूलकर
चने की दाल-से धुएँ में पकने लगे हैं।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'