”साहेब!
मख़ौल उड़ाना नहीं भूले।"
कहते हुए-
माँओं ने दुधमुँहे बच्चों की आँखों से
काजल से सने स्वप्न पोंछे
पिताओं ने भाईचारे का खपरैल तोड़ा
ये देख बुज़ुर्गों ने भी चुप्पी साधी
गाय की पहली रोटी छीनी
तो कहीं कौवों की मुंडेर
किसान का कलेवा छूटा तो
वहीं हल ठहर-ठहरकर चलने लगा
अभावग्रस्त संपन्नता को ताकते
सभ्यता के इस दौर में
संभ्रांतों की वृद्धि में इज़ाफ़ा हुआ
शब्द, विचारों में
वर्तमान निखर कर बाहर आया
मुँह फेरने की नई रीत चल पड़ी
"भव्यता का स्वाद क्या चखा साहेब!
घर की नींव न देखी महलों के नक़्शे बना दिए!"
कहते हुए-
फिर समय झुँझलाया
और सूखे पत्तों-सा झड़ने लगा
धैर्य आशाएँ टाँकता-टाँकता खो चुका विवेक
जवान काया कॉम्पिटिशन के नाम पर
कुढ़-कुढ़कर टूटती है
गीली लकड़ी-कंडे भी भीगे-से
मिट्टी का चूल्हा मिट्टी की हांडी
कैसी हवा बुन रहे हो साहेब?
लोग जीवन जीना भूलकर
चने की दाल-से धुएँ में पकने लगे हैं।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
कितना सही लिखा है आपने। आज के समय की एक तस्वीर यह भी है।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आपका।
हटाएंसादर स्नेह
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शनिवार (23-07-2022) को चर्चा मंच "तृषित धरणी रो रही" (चर्चा अंक 4499) पर भी होगी!
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हृदय से आभार सर मंच पर स्थान देने हेतु।
हटाएंसोचने को मजबूर करती बहुत सुन्दर लघु-कथा !
जवाब देंहटाएंमहाकवि दिनकर की पंक्तियाँ याद आ रही हैं -
'श्वानों का मिलता दूध-वस्त्र, भूखे बच्चे अकुलाते हैं.
माँ की हड्डी से चिपक, ठिठुर, जाड़े की रात बिताते हैं,
युवती के लज्जा-वासन बेच, जब ब्याज चुकाए जाते हैं,
मालिक तब तेल-फुलेलों पर, पानी सा द्रव्य बहाते हैं ---'
आदरणीय गोपेश मोहन जैसवाल जी सर
हटाएंसादर नमस्कार।
हृदय से आभार आपकी सारगर्भित प्रतिक्रिया से उत्साह द्विगुणित हुआ। महाकवि दिनकर जी पंक्तियाँ साहित्य के प्रति आपके गहन दृष्टि कोण को दर्शाता है। सृजन सार्थक हुआ आपकी प्रतिक्रिया मिली।
आशीर्वाद बनाए रखें।
सादर प्रणाम
मैं भ्रमित हो गयी हूँ । गोपेश जी ने इसे लघु कथा के रूप में परिभाषित किया । लेखिका ने शायद इसे लघु कथा के रूप में स्वीकार किया ।
जवाब देंहटाएंमुझे यह अतुकांत कविता सी लगी जिसमें विचारों की प्रधानता है । बहरहाल आज संयुक्त परिवार के विघटन को दर्शाती और समाज के दृश्य को उपस्थित करती सुंदर रचना है ।
सादर नमस्कार आदरणीया संगीता दी।
हटाएंआपकी प्रतिक्रिया से सृजन सार्थक हुआ।
भ्रमित होने जैसा कुछ नहीं है। दृष्टि कोण है अपना-अपना
आदरणीय गोपेश जी सर अपनी जगह सही है और आप अपनी जगह आप गहराई में डुबोगे तब यही पावोगे।
रचना के जिस मर्म को सर ने छू कर देखा शब्दों में ढालना मुश्किल है।
आप का स्नेह अनमोल है।
सादर
यह बात अक्षरशः सत्य है कि हरेक का अपना दृष्टिकोण होता है ।।👍👍👍
हटाएंयथार्थ परक एवं मर्म स्पर्शी रचना
जवाब देंहटाएंमाँओं ने दुधमुँहे बच्चों की आँखों से
जवाब देंहटाएंकाजल से सने स्वप्न पोंछे
पिताओं ने भाईचारे का खपरैल तोड़ा
ये देख बुज़ुर्गों ने भी चुप्पी साधी
बुजुर्ग जहाँ सही गलत को बेबाक न कहकर चुप्पी साधते हैं उस घर में मनमानियां होने लगती हैं और घर टुकड़ों में बँटते देर नहीं लगती
लाजवाब लेखन ।
चिंतनीय
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंवर्तमान विसंगतियों पर चिन्तन परक अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंमर्म स्पर्शी रचना
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