ऐसा नहीं है कि.
बहुत पहले पढ़ना नहीं आता था उसे
उस वक़्त भी पढ़ती थी
वह सब कुछ जो कोई नहीं पढ़ पाता था
बुज़ुर्गोँ का जोड़ों से जकड़ा दर्द
उनका बेवजह पुकारना
समय की भीत पर आई सीलन
सीलन से बने भित्ति-चित्रों को
पिता की ख़ामोशी में छिपे शब्द
माँ की व्यस्तता में बहते भाव
भाई-बहनों की अपेक्षाएँ
वर्दी के लिबास में अलगनी पर टँगा प्रेम
उस समय ज़िंदा थी वह
स्वर था उसमें
हवा और पानी की तरह
बहुत दूर तक सुनाई देता था
ज़िंदा हवाएँ बहुधा अखरती हैं
परंतु तब वह प्राय: बोलती थी
गाती-गुनगुनाती
सभी को सुनाती थी
पसंद-नापसंद के क़िस्से
क्या सोचती है
उसकी इच्छाएँ क्या हैं?
ज़िद करती थी ख़ुद से
रुठे सपनों को मनाने की
अब भी पढ़ती है निस्वार्थ भाव से
स्वतः पढ़ा जाता है
आँखें बंद करने पर भी पढ़ा जाता है
परंतु अब वह बोलती नहीं है।
@ अनीता सैनी 'दीप्ति'
मेरी भी एक कविता हैं ''रुह निकले पूतले "गूँगी गुडिया " में भी एक भाव हैं मौनता का संवेदनाहिनता का देखकर भी अनदेख आज बदल गया सब कुछ ' एक जिंदे मुर्दे की तरह । एक उदाशीन खामोशी । बहुत कुछ हैं । रचना शिल्पकला और सौन्दर्य से भरपुर रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई
जवाब देंहटाएंभानु भण्डारी
जवाब देंहटाएंआपका ब्लॉग पर हार्दिक स्वागत है।
हटाएंमनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार।
सादर
बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंहृदय से आभार।
हटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 26 अगस्त 2022 को 'आज महिला समानता दिवस है' (चर्चा अंक 4533) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
बहुत बहुत शुक्रिया सर मंच पर स्थान देने हेतु।
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार २६ अगस्त २०२२ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
हार्दिक आभार श्वेता दी मंच पर स्थान देने हेतु।
हटाएंजयहिन्द
जवाब देंहटाएंसादर
हार्दिक आभार दी आपकी प्रतिक्रिया से चहरे स्माइल आ गई.. भारत माता की जय 😂
हटाएंमरती संवेदनाओं के बीच जीना दुरूह हो जाता है,ऐसी मनोदशा का मार्मिक चित्रण
जवाब देंहटाएंकमाल की रचना
हार्दिक आभार सर।
हटाएंसादर
निस्वार्थ भाव से पढ़ा जाता है जब, तब बोलने की ज़रूरत भी नहीं रहती, सारा अस्तित्त्व सुन लेता है
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आपका अनीता दी।
हटाएंओह! दारुण चित्र खींचा है आपने ।
जवाब देंहटाएंतब वो जिन्दा थी, कितनी वेदना कितनी मार्मिक।
अनुपम अभिनव।
हार्दिक आभार कुसुम दी।
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंहृदय से आभार।
हटाएंपीड़ा और वेदना का ये भी एक रूप ।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन लिखा अनीता जी ।
हृदय से आभार जिज्ञासा जी
हटाएंउम्मीदों का कोना पकड़
जवाब देंहटाएंवो बोलती थी
चहचहाती थी
किस्से कहानियाँ भी
सुनाती थी ।
जब से अलगनी पर
वर्दी नहीं दिखती
खुद से ही
होते हैं संवाद
मन में हर दम
रहता विषाद
जिसके होने से
चहकती थी
अब कहाँ है कौन
इसी लिए अब
रहती है मौन ।
गज़ब का सृजन .... मन को झकझोर देने वाला ।
बहुत बहुत ही सुंदर लिखा आदरणीय संगीता दी जी।
हटाएंहृदय से आभार आपका
सादर
"समय की भीत पर आई सीलन
जवाब देंहटाएंसीलन से बने भित्ति-चित्रों को" ..
"वर्दी के लिबास में अलगनी पर टँगा प्रेम"..
अनुपम मार्मिक शब्द-चित्रण ...
हृदय से आभार आपका
हटाएंबेहतरीन लिखा अनीता जी ।
जवाब देंहटाएंहृदय से आभार संजय भाई।
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