शनिवार, सितंबर 24

दायित्व


मुझे सुखाया जा रहा है

सड़क के उस पार खड़े वृक्ष की  तरह

ठूँठ पसंद हैं इन्हें

वृक्ष नहीं!

वृक्ष विद्रोह करते हैं!

जो इन्हें बिल्कुल पसंद नहीं

समय शांत दिखता है

परंतु विद्रोही है 

इसका स्वयं पर अंकुश नहीं है 

तुम्हारी तरह, उसने कहा।

उसकी आँखों से टपकते

आँसुओं की स्याही से भीगा हृदय 

उसी पल कविता मन पड़ी थी मेरे 

सिसकते भावों को ढाँढ़स बँधाया

कुछ पल उसका दर्द जिया

उसकी जगह

खड़े होने की हिम्मत नहीं थी मुझ में 

मैंने ख़ुद से कहा-

मैं अति संवेदनशील हूँ!

और अगले ही पल

मैंने अपना दायित्वपूर्ण किया!


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

गुरुवार, सितंबर 15

भावों को जुटा हिंदी अधरों पर आई


सांसों से उलझते भाव 

जीभ से लिपटते स्वर

होंठों का कंपन 

समय की कोख में सदियों ठहरे 

कितनी ही बोलियों ने गर्भ बदले 

असंख्य चोटें खाईं 

अभावों को भोग 

भावों को जुटा हिंदी अधरों पर आई 

अथाह गहराई हृदय की अकुलाहट 

हवा में तैरते मछलियों से शब्द 

एक-एक शब्द में प्राण फूँके 

टहलता जीवन, जीवन जो

स्वयं कहानी कहता है अपनी 

कहता है-

विरासत के भोगियों !

प्रेम है मुझसे!

तब ढूँढ़ लो उस ठठेरे को

भोगी जिसने प्रथम शब्द की प्रसव-पीड़ा 

गढ़ा जिसने पहला शब्द

ऊँ शब्द में पुकार 

माँ शब्द में दुनिया 

पिता शब्द में छाँव गढ़ी।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

मंगलवार, सितंबर 13

कर्तव्य पथ



उनके लिए घर नहीं बना?

वह घर पर नहीं रह सकता ?

मैंने कुएँ से पूछा, उसने भी यही कहा!

उनके लिए घर नहीं बना

वह घर पर नहीं रह सकता 

सदियों से कुआँ ऐसा ही बोलता आया है

माँ ने कहा -

घर पर रहने से नाकारा, निकम्मा

होने की मुहर लगा दी जाती है 

वह ठप्पा उसे बहुत चुभता है 

चुभन से काया पर फफोले पड़ जाते हैं

जिससे उसे कोढ़ का आभास होता है

तू जानती है न?

कोढ़ी मरीज़ से सब दूर भागते हैं!

समाज से कटकर

वह जीवित नहीं रह सकता 

 टूटने-रूठने, आँखों में पानी भरने के 

किस गुनाह पर पता नहीं

परंतु ऐसे अधिकतर अधिकार

उससे छीन लिए गए हैं।

माँ की हाँ में 

गर्दन नहीं झुकाना चाहती थी 

स्वतः झुक गई

एक स्मृति के साथ 

एक बार उसने कहा था -

पंद्रह लोग गए थे हम 

दस सफ़र में छूट गए

पाँचो के नाम दिल्ली में लिखें हैं 

तब वह टूटना चाहता था, नहीं टूटा 

घर पर रुकना चाहता था, नहीं रुका!


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

गुरुवार, सितंबर 1

स्वेटर



” औरत हो! कभी अपने हृदय में झाँककर

अपने अंदर की औरत से भी मिल लिया करो 

पूछ लिया करो! दुख-दर्द उसके भी।”


कहते हुए-

उसांस के साथ हाथ बढ़ाएँ 

 और सीने से लगा लिया।


कुछ समय पश्चात चुपचाप उठकर चला गया।

कहते हुए-

”ख़याल रखना, जल्दी मिलते हैं।”


वह नहीं बोलता कभी

आँखें ही बोलती हैं उसकी

 एक छोर भी न पकड़ा और 

वर्षों से बुना

शिकायतों का स्वेटर एक पल में उधेड़ गया।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'