समय ने सफ़ाई से छला
उस सरल-हृदय ने मान लिया
कि गृहस्थ औरतों का क़लम पर
दूर-दूर तक कोई अधिकार नहीं।
अतृप्त निगाहों से घूरती किताबों को
ज्यों ज़िंदगी ने सारे अनसुलझे रहस्य
स्याही में लिप इन्हीं पन्नों में छुपाए हैं
उसकी ताक़त से रू-ब-रू
क़लम सहेजकर रखती है।
क़लम के अपमान पर खीझती
सीले भावों की बदरी-सी बरसती
उसके स्पर्श मात्र से झरता प्रेम
वह वियोगिनी-सी तड़प उठती है।
पंन्नों पर उँगली घुमाती
एक-एक पंक्ति को स्पर्शकर
बातें कविता-कहानियों-सी गढ़ती
शब्द नहीं
आँखें बंदकर अनगढ़ भावों को पढ़ती है।
अनपढ़ नहीं है वह
गृहस्थी की उलझनों में उलझी
शब्दों से मेल-जोल कम रखती है
उनसे जान-पहचान का अभाव
बढ़ती दूरियों से बेचैनी में सिमटी
आत्म छटपटाहट से लड़ती है।
शब्दों को न पहचानना खलता है उसे
आत्मविश्वास की उठती हिलोरों संग
साँझ की लालिमा-सी
भोर का उजाला लिए कहती है-
लिखती है मेरी बेटी
क्या लिखती है वह नहीं जानती
जानती है बस इतना कि लिखती है मेरी बेटी
पहाड़-सी कमी
छोटे से वाक्य में पूर्णकर लेती है माँ।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
लिखती है मेरी बेटी
जवाब देंहटाएंक्या लिखती है वह नहीं जानती…,
माँ के इस गर्व के भरे इस वाक्य के आगे सभी उपाधियाँ कम लगती हैं । सुन्दर सृजन ।
हार्दिक आभार आपका।
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज मंगलवार 25 अक्टूबर, 2022 को "जल गई दीपों की अवली" (चर्चा अंक-4591)
जवाब देंहटाएंपर भी होगी।
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कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभारी हूँ सर।
हटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंहृदय से आभार आपका।
हटाएंवाह !
जवाब देंहटाएंहृदय से आभार आपका।
हटाएंबहुत ख़ूब अनीता !
जवाब देंहटाएंमैं जो न कर पाई बिटिया, वह तू करेगी,
किसी न किसी दिन तू, मर्दों पर राज करेगी
हृदय से आभार आदरणीय गोपेश जी सर। शब्दों से व्यक्ति टूट भी जाता है और शब्द ही संबल बन जाते है पिता तुल्य स्नेह आशीर्वाद मिला है आपसे, अनेकानेक आभार आपका।
हटाएंसादर प्रणाम।
एक एक शब्द दर्द की गाथा है।
जवाब देंहटाएंगृहस्थी और जिम्मेदारियों में लिप्त, गाँव या कस्बे की जीवन शैली में स्वयं को समर्पित करती एक माँ की नहीं उस उम्र की कई मांओं की व्यथा है यह।
और जब उनकी बेटियाँ उन्मुक्त हो कर कुछ करती हैं तो ये माँएं सचमुच पुत्री गर्विता का आत्मगौरव लिए समाज में फिर से जी उठती हैं।
संवेदना का सुंदर चित्रण यथार्थ और हृदय स्पर्शी सृजन।।
हार्दिक आभार दी आपकी प्रतिक्रिया संबल है मेरा। आशीर्वाद बनाए रखें।
हटाएंसादर