सोमवार, दिसंबर 26
'एहसास के गुँचे' एवं 'टोह' का लोकार्पण
शनिवार, दिसंबर 17
बटुआ
एहसास भर से स्मृतियाँ
बोल पड़ती हैं कहतीं हैं-
तुम सँभालकर रखना इसे
अकाल के उन दिनों में भी
खनक थी इसमें!
चारों ओर
सूखा ही सूखा पसरा पड़ा था
उस बखत भी इसमें सीलन थी।
गुलामी का दर्द
आज़ादी की चहलक़दमी
दोनों का
मिला-जुला समय भोगा है इसने।
अतीत के तारे वर्तमान पर जड़ती
यकायक मौन में डूब जाती थी।
क्या है इसमें ? पूछने पर बताती
विश्वास!
विश्वासपात्र के लिए।
नब्बे पार की उँगलियाँ
साँझ-सा स्पर्श
भोर की हथेलियों पर विश्वास के अँखुए
धीरे-धीरे टटोला करती थी ददिया सास।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
बुधवार, नवंबर 30
उसका जीवन
बुधवार, नवंबर 9
स्त्री भाषा
परग्रही की भांति
धरती पर नहीं समझी जाती
स्त्री की भाषा
भविष्य की संभावनाओं से परे
किलकारी की गूँज के साथ ही
बिखर जाते हैं उसके पिता के सपने
बहते आँसुओं के साथ
सूखने लगता है
माँ की छाती का दूध
बेटी के बोझ से ज़मीन में एक हाथ
धँस जाती हैं उनकी चारपाई
दाई की फूटती नाराज़गी
दायित्व से मुँह मोड़ता परिवार
माँ कोसने लगती हैं
अपनी कोख को
उसके हिस्से की ज़मीन के साथ
छीन ली जाती है भाषा भी
चुप्पी में भर दिए जाते हैं
मन-मुताबिक़ शब्द
सुख-दुख की परिभाषा परिवर्तित कर
जीभ काटकर
रख दी जाती है उसकी हथेली पर
चीख़ने-चिल्लाने के स्वर में उपजे
शब्दों के बदल दिए जाते हैं अर्थ
ता-उम्र ढोई जाती है उनकी भाषा
एक-तरफ़ा प्रेम की तरह।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
शनिवार, अक्तूबर 29
मेरी दहलीज़ पर
भोर का बालपन
घुटनों के बल चलकर आया था
उस रोज़ मेरी दहलीज़ पर
गोखों से झाँकतीं रश्मियाँ
ममता की फूटती कोंपलें
उसकने लगी थीं मेरी हथेली पर
बदलाव की उस घड़ी में
छुप गया था चाँद, बादलों की ओट में
सांसें ठहर गई थीं हवा की
बदल गया था
भावों के साथ मेरी देह का रंग
मैं कोमल से संवेदनशील
और पत्नी से माँ बन गई।
आँचल से लिपटी रातें सीली-सी रहतीं
मेरे दिन दौड़ने लगे थे
उँगलियाँ बदलने का खेल खेलते पहर
वे दिन-रात मापने लगे
सूरज का तेज विचारों में भरता
मेरा प्रतिबिम्ब अंबर में चमकने लगा
नूर निखरता भावनाओं का
मैं शीतल चाँदनी-सी झरती रही
बदल गया था
भावों के साथ मेरी देह का रंग
मैं कोमल से संवेदनशील
और पत्नी से माँ बन गई।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
बुधवार, अक्तूबर 26
काव्य-संग्रह 'टोह' के अवतरण दिवस पर
रविवार, अक्तूबर 23
बिरला गान
समय ने सफ़ाई से छला
उस सरल-हृदय ने मान लिया
कि गृहस्थ औरतों का क़लम पर
दूर-दूर तक कोई अधिकार नहीं।
अतृप्त निगाहों से घूरती किताबों को
ज्यों ज़िंदगी ने सारे अनसुलझे रहस्य
स्याही में लिप इन्हीं पन्नों में छुपाए हैं
उसकी ताक़त से रू-ब-रू
क़लम सहेजकर रखती है।
क़लम के अपमान पर खीझती
सीले भावों की बदरी-सी बरसती
उसके स्पर्श मात्र से झरता प्रेम
वह वियोगिनी-सी तड़प उठती है।
पंन्नों पर उँगली घुमाती
एक-एक पंक्ति को स्पर्शकर
बातें कविता-कहानियों-सी गढ़ती
शब्द नहीं
आँखें बंदकर अनगढ़ भावों को पढ़ती है।
अनपढ़ नहीं है वह
गृहस्थी की उलझनों में उलझी
शब्दों से मेल-जोल कम रखती है
उनसे जान-पहचान का अभाव
बढ़ती दूरियों से बेचैनी में सिमटी
आत्म छटपटाहट से लड़ती है।
शब्दों को न पहचानना खलता है उसे
आत्मविश्वास की उठती हिलोरों संग
साँझ की लालिमा-सी
भोर का उजाला लिए कहती है-
लिखती है मेरी बेटी
क्या लिखती है वह नहीं जानती
जानती है बस इतना कि लिखती है मेरी बेटी
पहाड़-सी कमी
छोटे से वाक्य में पूर्णकर लेती है माँ।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
रविवार, अक्तूबर 9
मैं जब तुम बनकर जीती हूँ
मैं जब, तुम बनकर जीती हूँ
तब मैं जी रही होती हूँ आकाश
उन्मुक्त भाव
धूप के टुकड़ों को सींचते
भोर के क़दमों की आहट
क्षितिज-सा समर्पण
तब मैं लिख रही होती हूँ पहाड़
दरारों से झाँकती सदियाँ
पाषाण के फूटते बोल
जीवन काढ़े का अनुभव
परिवर्तन पी रही होती हूँ
तब मैं, मैं कहाँ रहती हूँ
बिखर रही होती हूँ काग़ज़ पर
भावों की परछाई शब्दों में ढलती
उस वक़्त कविता-कहानियों का
अनकहा ज़िक्र जी रही होती हूँ।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
शनिवार, सितंबर 24
दायित्व
मुझे सुखाया जा रहा है
सड़क के उस पार खड़े वृक्ष की तरह
ठूँठ पसंद हैं इन्हें
वृक्ष नहीं!
वृक्ष विद्रोह करते हैं!
जो इन्हें बिल्कुल पसंद नहीं
समय शांत दिखता है
परंतु विद्रोही है
इसका स्वयं पर अंकुश नहीं है
तुम्हारी तरह, उसने कहा।
उसकी आँखों से टपकते
आँसुओं की स्याही से भीगा हृदय
उसी पल कविता मन पड़ी थी मेरे
सिसकते भावों को ढाँढ़स बँधाया
कुछ पल उसका दर्द जिया
उसकी जगह
खड़े होने की हिम्मत नहीं थी मुझ में
मैंने ख़ुद से कहा-
मैं अति संवेदनशील हूँ!
और अगले ही पल
मैंने अपना दायित्वपूर्ण किया!
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
गुरुवार, सितंबर 15
भावों को जुटा हिंदी अधरों पर आई
सांसों से उलझते भाव
जीभ से लिपटते स्वर
होंठों का कंपन
समय की कोख में सदियों ठहरे
कितनी ही बोलियों ने गर्भ बदले
असंख्य चोटें खाईं
अभावों को भोग
भावों को जुटा हिंदी अधरों पर आई
अथाह गहराई हृदय की अकुलाहट
हवा में तैरते मछलियों से शब्द
एक-एक शब्द में प्राण फूँके
टहलता जीवन, जीवन जो
स्वयं कहानी कहता है अपनी
कहता है-
विरासत के भोगियों !
प्रेम है मुझसे!
तब ढूँढ़ लो उस ठठेरे को
भोगी जिसने प्रथम शब्द की प्रसव-पीड़ा
गढ़ा जिसने पहला शब्द
ऊँ शब्द में पुकार
माँ शब्द में दुनिया
पिता शब्द में छाँव गढ़ी।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
मंगलवार, सितंबर 13
कर्तव्य पथ
उनके लिए घर नहीं बना?
वह घर पर नहीं रह सकता ?
मैंने कुएँ से पूछा, उसने भी यही कहा!
उनके लिए घर नहीं बना
वह घर पर नहीं रह सकता
सदियों से कुआँ ऐसा ही बोलता आया है
माँ ने कहा -
घर पर रहने से नाकारा, निकम्मा
होने की मुहर लगा दी जाती है
वह ठप्पा उसे बहुत चुभता है
चुभन से काया पर फफोले पड़ जाते हैं
जिससे उसे कोढ़ का आभास होता है
तू जानती है न?
कोढ़ी मरीज़ से सब दूर भागते हैं!
समाज से कटकर
वह जीवित नहीं रह सकता
टूटने-रूठने, आँखों में पानी भरने के
किस गुनाह पर पता नहीं
परंतु ऐसे अधिकतर अधिकार
उससे छीन लिए गए हैं।
माँ की हाँ में
गर्दन नहीं झुकाना चाहती थी
स्वतः झुक गई
एक स्मृति के साथ
एक बार उसने कहा था -
पंद्रह लोग गए थे हम
दस सफ़र में छूट गए
पाँचो के नाम दिल्ली में लिखें हैं
तब वह टूटना चाहता था, नहीं टूटा
घर पर रुकना चाहता था, नहीं रुका!
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
गुरुवार, सितंबर 1
स्वेटर
” औरत हो! कभी अपने हृदय में झाँककर
अपने अंदर की औरत से भी मिल लिया करो
पूछ लिया करो! दुख-दर्द उसके भी।”
कहते हुए-
उसांस के साथ हाथ बढ़ाएँ
और सीने से लगा लिया।
कुछ समय पश्चात चुपचाप उठकर चला गया।
कहते हुए-
”ख़याल रखना, जल्दी मिलते हैं।”
वह नहीं बोलता कभी
आँखें ही बोलती हैं उसकी
एक छोर भी न पकड़ा और
वर्षों से बुना
शिकायतों का स्वेटर एक पल में उधेड़ गया।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
सोमवार, अगस्त 29
वीरानियों में सिमटी धरती
वीरानियों में सिमटी धरती
चाँद, सूरज टंगा अंबर
मरुस्थल पैर नहीं जलाता
उस पर चलनेवालों के
बच्चे नंगे पाँव दौड़ते हैं!
प्यास गला नहीं घोंटती
पशु-पक्षियों का
बादलों की छाँव होती है!
न जाने क्यों पुरुष दिन-रात
सिसकते हैं?
सूखे कुएँ-तालाबों को देखकर
मरुस्थल भी रोता हुआ
दहाड़ मारता है!
गर्भ में सूखते शिशुओं को देख
माताएँ भूल गई हैं सिसकना!
राजस्थान घूमने आए सैलानी
कवि-लेखक भी मुग्ध हो
कविता-कहानियाँ लिखते हैं
पानी के मटके लातीं औरतों की
तस्वीर निकाली जाती है
मजबूरियों हृदय को छूती हैं
संवेदनाएँ ज़िंदा रहती हैं उनसे
बरखान, धोरों में प्रेम ढूँढ़ा जाता है
दूर- दूर तक फैले टीलों को
निहारा जाता है
खंडहर बनी बावड़ियों
गाँव और ग्रामीणों में
सभ्य हो,
सभ्यता तलाशी जाती है।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
गुरुवार, अगस्त 25
मौन से मौन तक
ऐसा नहीं है कि.
बहुत पहले पढ़ना नहीं आता था उसे
उस वक़्त भी पढ़ती थी
वह सब कुछ जो कोई नहीं पढ़ पाता था
बुज़ुर्गोँ का जोड़ों से जकड़ा दर्द
उनका बेवजह पुकारना
समय की भीत पर आई सीलन
सीलन से बने भित्ति-चित्रों को
पिता की ख़ामोशी में छिपे शब्द
माँ की व्यस्तता में बहते भाव
भाई-बहनों की अपेक्षाएँ
वर्दी के लिबास में अलगनी पर टँगा प्रेम
उस समय ज़िंदा थी वह
स्वर था उसमें
हवा और पानी की तरह
बहुत दूर तक सुनाई देता था
ज़िंदा हवाएँ बहुधा अखरती हैं
परंतु तब वह प्राय: बोलती थी
गाती-गुनगुनाती
सभी को सुनाती थी
पसंद-नापसंद के क़िस्से
क्या सोचती है
उसकी इच्छाएँ क्या हैं?
ज़िद करती थी ख़ुद से
रुठे सपनों को मनाने की
अब भी पढ़ती है निस्वार्थ भाव से
स्वतः पढ़ा जाता है
आँखें बंद करने पर भी पढ़ा जाता है
परंतु अब वह बोलती नहीं है।
@ अनीता सैनी 'दीप्ति'
गुरुवार, अगस्त 18
ग्रामीण औरतें
ये कागद की लुगदी से
मटके पर नहीं गढ़ी जाती
और न ही
मिट्टी के लोथड़े-सी चाक पर
चलाई जाती हैं।
माताएँ होती हैं इनकी
ये ख़ुद भी माताएँ होती हैं किसी की
इनके भी परिवार होते हैं
परिवार की मुखिया होती हैं ये भी।
सुरक्षा की बाड़ इनके आँगन में भी होती है
सूरज पूर्व से पश्चिम में इनके लिए भी डूबता है
रात गोद में लेकर सुलाती
भोर माथा चूमकर इनको भी जगाती है।
गाती-गुनगुनाती प्रेम-विरह के गीत
पगडंडियों पर डग भरना इन्हें भी आता है
काजल लगाकर शर्मातीं
स्वयं की बलाएँ लेती हैं ये भी।
भावनाओं का ज्वार इनमें भी दौड़ता है
ये भी स्वाभिमान के लिए लड़ती हैं
काया के साथ थकती सांसें
उम्र के पड़ाव इन्हें भी सताते हैं ।
छोटी-सी झोपड़ी में
चमेली के तेल से महकता दीपक
सपने पूरे होने के इंतज़ार में
इनकी भी चौखट से झाँकता है।
सावन-भादों इनके लिए भी बरसते हैं
ये भी धरती के जैसे सजती-सँवरती हैं
चाँद-तारों की उपमाएँ इन्हें भी दी जाती हैं
प्रेमी होते हैं इनके भी,ये भी प्रेम में होती हैं।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
सोमवार, जुलाई 25
दोहे
1.बैरागी री ओढ़णी,
सजै सावणा साथ।
डग डागळा चार भरै,
पकडे कजरी हाथ।।
2. पथ री पीड़ा कुण पढ़े,
लुळ-लुळ चालै आप।
भाटा जद आवै पगां,
मन पीड़ावै धाप ।।
3.आभै आँगणा झुमती,
बुणे बादळी जाल।
गाज गिरावै काळजौ,
सुथरी चालै-चाल ।।
4. छज्जे माथे मोरियो,
बुणे सुखां री छाँव।
सूत करम रौ कातता,
छळे समै रौ दाँव।।
5.धीर धरम धीमे चले,
गीत गावता मौण।
घणा लुभावै चालता,
होवै तिसणा गौण।।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
शुक्रवार, जुलाई 22
कैसी हवा बुन रहे हो साहेब?
”साहेब!
मख़ौल उड़ाना नहीं भूले।"
कहते हुए-
माँओं ने दुधमुँहे बच्चों की आँखों से
काजल से सने स्वप्न पोंछे
पिताओं ने भाईचारे का खपरैल तोड़ा
ये देख बुज़ुर्गों ने भी चुप्पी साधी
गाय की पहली रोटी छीनी
तो कहीं कौवों की मुंडेर
किसान का कलेवा छूटा तो
वहीं हल ठहर-ठहरकर चलने लगा
अभावग्रस्त संपन्नता को ताकते
सभ्यता के इस दौर में
संभ्रांतों की वृद्धि में इज़ाफ़ा हुआ
शब्द, विचारों में
वर्तमान निखर कर बाहर आया
मुँह फेरने की नई रीत चल पड़ी
"भव्यता का स्वाद क्या चखा साहेब!
घर की नींव न देखी महलों के नक़्शे बना दिए!"
कहते हुए-
फिर समय झुँझलाया
और सूखे पत्तों-सा झड़ने लगा
धैर्य आशाएँ टाँकता-टाँकता खो चुका विवेक
जवान काया कॉम्पिटिशन के नाम पर
कुढ़-कुढ़कर टूटती है
गीली लकड़ी-कंडे भी भीगे-से
मिट्टी का चूल्हा मिट्टी की हांडी
कैसी हवा बुन रहे हो साहेब?
लोग जीवन जीना भूलकर
चने की दाल-से धुएँ में पकने लगे हैं।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
रविवार, जुलाई 17
सैनिकों की बेटियाँ
सैनिकों की बेटियाँ
पिता के स्नेह की परिभाषा
माँ के शब्दों में पढ़ती हैं।
भावों से पिता शब्द तराशतीं
पलक झपकते ही बड़ी हो जाती हैं।
पिता शब्द में रंग भरतीं
माँ को सँवारतीं
स्वप्न के बेल-बूँटों को स्वतः सींचतीं
टूटने और रूठने से परे वे
न जाने कब सैनिक बन जाती हैं।
बादलों की टोह लेतीं
धूप-छाँव के संगम में पलीं वल्लरियाँ
रश्मियों-सी निखर जाती हैं।
हृदय-भीत पर मिट्टी का लेप लगातीं
न जाने कब घर का स्तंभ बन जाती हैं।
जटायू हूँ मैं
कह काल के रावण को डरातीं
छोटे जूतों में बढ़ते पैरों को छिपातीं
माँ की ढाल बनते-बनते
न जाने कब पिता की परछाई बन जाती हैं।
सैनिकों की बेटियाँ
पलक झपकते ही बड़ी हो जाती हैं।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
गुरुवार, जुलाई 14
सिरजणहार
राम-रमौवळ खग री वाणी
माणस मोती जूणा है।।
पीड़ा सहे सीप-सी स्रिस्टा
टेम घड़ी री हूणा है।।
रास रचावै सोनल किरणां
डिगै नहीं दोपहरा ईं।
कोनी जाणै लाण रूसणों
तड़के उठे सबेरा ईं।
बादळियै री छेड़े छांटां
सूरज आभै थूणा है।।
चानणों रंग सात रचावै
नैणा हिवड़ा घोळे हेत।
पग ध्वणियां असाढ़-सावण री
बाट जोवती नाचे रेत।
दूब उचके काळजे माथे
फले फूलती कूणा है।।
पता घूळे रोळी हींगळू
मेदिणी निरखे सिणगार।
जोत जळावै बादळ चूंखा
पून पांखा सिलग आंगार।
काळ घट गड्या ईबकाळै
भाव सागरा सूणा है।।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
शब्दार्थ
राम-रमौवळ/राम में रमे स्वर या राम मयी स्वर,जूणा/योनि,हूणा/समय,सोनल किरणां/सूर्य की किरण,डिगै/ बैठना ,कोनी /नहीं,जाणै/जानना ,रूसणों/नाराज होना,तड़के/भोर का समय ,बादळियै/बादल,छांटां/बारिस की बुँदे,आभै/आकाश , थूणा/स्तूप,चानणियो/उजाला ,हेत/प्रेम,चूंखा/रुई ,ईबकाळै/इस बार , स्रिस्टा /सृष्टि का निर्माण करने वाला
गुरुवार, जुलाई 7
बापू
भाव सरिता बहती आखरा
मौण रौ माधुर्य बापू।।
बढ़े-घटे परछाई पहरा
दुख छळे सहचर्य बापू।।
हाथ आंगळी पग पीछाणै
सुख रौ जाबक रूखाळो।
सूत कातता उळझ रया जद
सुळझावै नित निरवाळो।
तिल-तिल जळती दिवला बाती
च्यानण स्यूं अर्य बापू।।
काळजड़े रै कूंणा फूटै
अणभूतयां री कूंपळां।
सूरज किरण्या जीवण सींचे
खारे समंदर दीप्तोपळा
खरे ज्ञान रो खेजड़लो है
देवदूत अनुहार्य बापू।।
टेम खूंटी आभै टांगता
इंदर धणुष थळियां उग्या।
मरू माथे छाया रूंख री
मोती मणसा रा पुग्या।
सगळां री संकळाई ओटै
मेदिणी रौ धैर्य बापू।।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
शब्दार्थ
छळे/छलना,आंगळी/अंगुली,पीछाणै/पहचाने,जाबक/संपूर्ण; एकदम,रूखाळो/रखवाला,सुळझावै/सुलझाना,निरवाळो/एकांत,अनुहार्य/अनुकरण करने योग्य,कूंणा/कोना,अणभूतयाँ /अनुभूति,कूंपळा/कोंपल,च्यानण /उजाला,अर्य/(श्रेष्ठ,पूज्य ),दीप्तोपळा/सूर्य कांत मणि,खेजड़लो/खेजड़ी का वृक्ष,टेम/समय,आभै /अंबर,सगळां /सभी,संकळाई/समस्या,ओटै /समाधान करना
सारांश -पिता में छिपे ममता रूपी भावों को दर्शाता यह नवगीत, इसमें नायिका कहती की पिता का स्नेह ऐसे है जैसे शब्दों में भाव हो और मौन में माधुर्य, वह कहती है समय के साथ दिन दोपरा परछाई बढ़ती घटती जैसे सुख के साथी बहुत होते हैं परंतु पिता तो दुख में भी आपने साथ होता है।
अगले अंतरे में नायिका कहती हैं पिता अंगुलियों के स्पर्श मात्र से या पैरों की आहट से पहचान लेता है, वह आपके सुख का बहुत ध्यान रखता है, अगर वह ज़िंदगी की उलझनों में उलझ भी जाता है तब भी किसी को कुछ नहीं कहता अगल एकांत में बैठ उसे सुलझाता रहता है, पिता बाती के जैसे आजीवन तिल-तिल जलता है, इसी पर नायिका ने पिता को उजाले से भी श्रेष्ठ और महान बताया है
अगले अंतरे में नायिका कहती है -हृदय के कोने में यादों की कोंपल फूटती है, स्मृति में डूबी कहती है जैसे सूरज जग में समंदर रूपी खारे जीवन को सींचता है वैसे ही पिता परिवार में सूर्य कांत मणि के समान है,
वह कहती है पिता शुद्ध ज्ञान का भंडार है, वह देवदूत अनुकरण करने योग्य है,
वह कहती है- पिता ही है वह जो समय की खूँटी पर अंबर टांग देता है और इंद्र धनुष आँगन में उतार देता है, पिता मरुस्थल के माथे पर छाँव है वह हमारी इच्छाओं का मोती है, सम्पूर्ण परिवार के दुख-दर्द अपने हृदय पर रखकर जीता है तभी नायिका कहती है पिता तो धरती का धैर्य है।
सभी पिताओं को समर्पित यह नवगीत अगर आप पाठकगण अपने-अपने दृष्टिकोण से पढ़ेंगे तब मुझे बहुत ख़ुशी होगी, हमेशा सारांश संभव नहीं है 🙏
गुरुवार, जून 30
तुम्हें पता है?
तुम्हें पता है?
उधमी बादलों का यों
गाहे-बगाहे उधम मचाना
सूरज को हथेली से ढकना
ज़िद्दीपन ओढ़े गरजना
संस्कारहीनता है दर्शाता
चहुँ ओर फैले अंधकार के
स्वर कोंधते हैं कानो में
वृक्षों का मौन मातम
कोंपलें करता है कलुषित
आँखों से बहता हाहाकार
धड़कनों पर रहता है सवार
अवचेतन की गोद में क़लम
स्थूल पड़े शब्दों का ज्वर
आशंकाओ में उलझी बुद्धि
घोंसले में दुबके पखेरू
अँधेरा बुझाता पहेलियाँ
चेतना टटोलती उजाला
दीपक हवाओं की क़ैद में हैं!
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
रविवार, जून 26
जीवण जेवड़ी
जीवण जेवड़ी रहट घूमे
चौमासे री रात गळे।।
नाच नचावै म्रग तिसणा।
ताती माटी पैर तळे।।
राग अलापे पंछी भोळा
मूक-बधिर पाहुण ठहरा।
झंझावात जंजाळ बुणावै
धी बूंटा काडे गहरा।
प्रेम आभै रै पगती बुई
आभ निरखे आपे ढळे।।
लौ लपट्या झूलस्य धरती
लुट्य तरवर रौ सिणगार।
पून सुरमो सारया थिरके
काग सिळगावै अंगार।
छाँव रूँख री रूँख रै मथै
दो सूरज अक साथ जळे।।
ओढ़ ओढ़णी चाले टेडी
रंग बुरकावै नुआँ-नुआँ।
दिण दोपहरी सूरज ढळता
धूणी सिळगे धुआँ-धुआँ।
काळी-पीळी सज सतरंगी
फिरती-घिरती हिया छळे।।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
शब्दार्थ
जेवड़ी /रस्सी, रहट/ कुएँ से पानी निकालने का एक ऐसा यंत्र, जिस से रस्सी से पानी निकाल जाता है, ताती/गर्म,तळे/नीचे,लौ लपट्या/ आग की लपटे,सुरमो/ काजल,रूँख/वृक्ष,मथै/ऊपर,अक/एक,बुरकावै/बरसाना,नुआँ-नुआँ/नया-नया, बुई / छोटा मरुस्थली पौधा होता है जो बदल जैसा सफ़ेद दिखता है।