शनिवार, जनवरी 28

बोधि वृक्ष



नर्क की दीवार खंडहर
एकदम खंडहर हो चुकी है
हवा के हल्के स्पर्श से 
वहाँ की मिट्टी काँप जाती है
कोई चरवाह नहीं गुजरता उधर से
और न ही
पक्षी उस आकाश पर उड़ान भरते हैं 
मुख्य द्वार पर खड़ा 
 बोधि वृक्ष
बुद्ध में लीन हो चुका है एकदम लीन 
उसने समझा 
समय की भट्टी में
मनोविकारों के साथ 
धीरे-धीरे
जलने में ही परमानंद है
ख़ुशी हँसाती है न दुख रुलाता है
और न ही कोई विकार सताता है
भावनाओं की इस
मौन प्रक्रिया में शब्द विघ्न हैं 
प्रकृति के साथ एकांतवास वैराग्य नहीं 
प्रेम है कोरा प्रेम
सच्चे प्रेम की अनुभूति है 
प्रकृति मधुर संगीत सुनाती है
आकाश बाँह फैलाए तत्पर रहता है
गलबाँह में जकड़ने हेतु
अंबर प्रेमी है
उसकी आवाज विचलित करती है 
अनदिखे में होने का आभास
कोरी कल्पना नहीं
अस्तित्व है उसका 
उसकी पुकार को  
अनसुना नहीं किया जा सकता
सम्राट अशोक भी दौड़े आए थे 
उसकी  पुकार पर
नर्क के द्वार को लाँघते हुए 
बुद्ध में लीन होने।

@अनीता सैनी 'दीप्ति

बुधवार, जनवरी 18

मैं और मेरी माँ






माँ के पास शब्दों का टोटा

हमेशा से ही रहा है 

वह कर्म को मानती है

कहती है-

”कर्मों से व्यक्ति की पहचान होती है

 शब्दों का क्या कोई भी दोहरा सकता है।”

उसका मितभाषी होना ही

मेरी लिए

कविता की पहली सीढ़ि था

 मौन में माँ नजर आती है 

मैं हर रोज़ उसमें माँ को जीती हूँ और 

माँ कहती है-

”मैं तुम्हें।”

जब भी हम मिलते हैं

 हमारे पास शब्द नहीं होते

 कोरी नीरवता पसरी होती है

 वही नीरवता चुपचाप

 गढ़ लेती है नई कविताएँ 

माँ कविताएँ लिखती नहीं पढ़ती है

 मुझ में 

कहती है-

"तुम कविता हो अनीता नहीं।"


@अनिता सैनी 'दीप्ति'

शनिवार, जनवरी 7

ग्रामीण स्त्रियाँ



कोहरे की चादर में 

लिपटी सांसें

उठने का हक नहीं है

इन्हें !

जकड़न सहती

ज़िंदगी से जूझती ज़िंदा हैं

टूटने से डरतीं 

वही कहती हैं जो सदियाँ

कहती आईं 

वे उठने को उठना और

बैठने को

 बैठना ही कहतीं आईं हैं 

पूर्वाग्रह कहता है 

तुम 

घुटने मोड़कर 

बैठे रहो!

उठकर चलने के विचार मात्र से

छिल जाती है

 विचारों के तलवों की 

कोमल त्वचा।


@अनिता सैनी 'दीप्ति'