कोहरे की चादर में
लिपटी सांसें
उठने का हक नहीं है
इन्हें !
जकड़न सहती
ज़िंदगी से जूझती ज़िंदा हैं
टूटने से डरतीं
वही कहती हैं जो सदियाँ
कहती आईं
वे उठने को उठना और
बैठने को
बैठना ही कहतीं आईं हैं
पूर्वाग्रह कहता है
तुम
घुटने मोड़कर
बैठे रहो!
उठकर चलने के विचार मात्र से
छिल जाती है
विचारों के तलवों की
कोमल त्वचा।
@अनिता सैनी 'दीप्ति'
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आपकी लिखी रचना सोमवार 9 जनवरी 2023 को
जवाब देंहटाएंपांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
निःशब्द करती गहन अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंवाह! कविता पढ़कर मन कैसा ठहर गया है, विचारों के भी तलवे होते हैं और उनकी कोमल त्वचा !! अद्भुत!
जवाब देंहटाएंवाह!प्रिय अनीता ,खूबसूरत सृजन ।
जवाब देंहटाएंमर्मस्पर्शी ,बेहतरीन अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंहृदय स्पर्शी सृजन सखी बहुत ही सुन्दर
जवाब देंहटाएंविचार उठे तो पूर्वाग्रह बदल न जायं
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर चिंतनपरक सृजन ।
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार (12-1-23} को "कुछ कम तो न था ..."(चर्चा अंक 4634) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
बेहतरीन भवाभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंसाँसों को फिर भी उठाना होता है चलना होता है ...
जवाब देंहटाएंनही तो जीवन कहाँ रहता है ...