वह भिक्षुक
निरा भिक्षुक ही था !!
उसने हवा चखी, दिन-रात भोगे
रश्मियों को गटका
चाँद से चतुराई की
यहाँ तक
पानी से खिलवाड़ करता
पेड़-पौधों को लीलता गया
मैंने कहा-
भाई! सुबह से शाम तक कितना जुटा लेते हो ?
वह एक टक घूरता रहा
परंतु वे आँखें उसकी न थीं
कुछ समय पश्चात बड़बड़ाया
वे शब्द भी उसके अपने कमाए न थे
गर्दन के पीछे
अपने दोनों हाथ कसकर जकड़ता है
दीवार का सहारा लेता है
सोए विचारों को जगाने का प्रयास करता है
परंतु वे विचार भी उसके अपने न थे
उसकी अपनी कमाई पूँजी कुछ न थी
आँखें, न आवाज़ और न ही विचार
उधारी पर टिका जीवन
बद से बदतर होता गया
पश्चाताप की अग्नि में
जलता हुआ आज कहता है-
मैं अपनी आवाज़
अपने विचार और आँखें चाहता हूँ
बहुत पीड़ादायक होता है भाई!
डेमोक्रेसी में आवाज़ का खो जाना।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'