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शनिवार, अप्रैल 15

तथागत


अबकी बार

पूर्णिमा की आधी रात को 

गृहस्थ जीवन से विमुख होकर 

जंगल-जंगल नहीं भटकेंगे तथागत 

और न ही

पहाड़ नदी किनारे खोजेंगे सत 

उन्होंने एकांतवास का

मोह त्याग दिया है 

त्याग दिया है 

बरगद की छाँव में

आत्मलीन होने के विचार को 

उस दिन वे मरुस्थल से

मिलने का वादा निभाएंगे

भटकती आँधियाँ 

उफनते ज्वार-भाटे

रेत पर समंदर के होने का एहसास  देख 

जागृत होगी चेतना उनकी 

वे उसका का माथा सहलाएंगे

तपती काया पर

आँखों का पानी उड़ेलेंगे 

मरुस्थल का दुःख पवित्र है

उसे आँसुओं से धोएंगे 

उसकी  देह के 

बनते-बिगड़ते धोरों की मुट्ठी में

बंद हैं

तुम्हारी स्मृतियों के मोती।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

4 टिप्‍पणियां:

  1. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा रविवार 16 अप्रैल 2023 को 'बहुत कमज़ोर है यह रिश्तों की चादर' (चर्चा अंक 4656) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

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  2. लाजवाब प्रस्तुति।

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  3. गहनतम भाव समेटे अभिनव सृजन।

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  4. बहुत सुंदर लिखा है आपने।

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