बँधी भावना निबाहते
हाथ से मिट्टी झाड़ते हुए
खुरपी से उठी निगाहों ने
क्षणभर वार्तालाप के बाद
अंबर से
गहरे विश्वास को दर्शाया
चातक पक्षी की तरह
कैनवास पर लिखा था-
प्रतीक्षारत!
"किसी बीज का वृक्ष
हो जाना ही प्रतीक्षा है।”
अज्ञेय के शब्दों के सहारे
कविता में
स्वयं को आवाज़ लगाता
धोरे बनाता
कुएँ से पानी
रस्सी के सहारे खींचता
बीज सींचता
विश्वास में लिपटा
शून्य था पसरा
आस-पास कोई वृक्ष न था
कुएँ से लौटी खाली बाल्टी
उसमें पानी भी कहाँ था?
अनीता सैनी 'दीप्ति'