"उस महल की नींव में
न जाने कितने ही मासूम परिंदे
दफ़नाए गए हैं
महल की रखवाली के लिए
कितना कुछ दफ़न है ना
हमारे इर्द-गिर्द।"
उसने मेरी ओर देखते हुए कहा
मैंने पूछते हुए टोका
"और उस घर की नींव में?"
ख़ामोशी से घूरता रहा वह
ख़ुद की परछाई को पानी में
घिस चुकी इच्छाएँ
तैर रही थीं
मछली की तरह
उन्हें उच्चारना ही नहीं
उकेरना भी भूल गया
भावशिल्प ही नहीं
शब्द शिल्प भी
आँखें धुँधरा गई
बेमौसम की बारिशें पीकर
पलकें भीगी न बूँद छलकी
वे बस बुद्धमय हो गईं।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा मंगलवार (16-05-2023) को "काहे का अभिमान करें" (चर्चा-अंक 4663) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
अनिर्वचनीय अनुभूति . अभिनन्दन अनीता जी.
जवाब देंहटाएंजब ज्ञान चक्षु खुलते हैं तो बुद्धमय हो जाता है सबकुछ
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
'बुद्धमय' ...क्या बात है , अनुपम सृजन !
जवाब देंहटाएंI’m happy to see some great articles on your site. I truly appreciate it, many thanks for sharing
जवाब देंहटाएंthanks for sharing
"बेमौसम की बारिशें पीकर
जवाब देंहटाएंपलकें भीगी न बूँद छलकी
वे बस बुद्धमय हो गईं।"
बहुत ही सुंदर सृजन है।