बँधी भावना निबाहते
हाथ से मिट्टी झाड़ते हुए
खुरपी से उठी निगाहों ने
क्षणभर वार्तालाप के बाद
अंबर से
गहरे विश्वास को दर्शाया
चातक पक्षी की तरह
कैनवास पर लिखा था-
प्रतीक्षारत!
"किसी बीज का वृक्ष
हो जाना ही प्रतीक्षा है।”
अज्ञेय के शब्दों के सहारे
कविता में
स्वयं को आवाज़ लगाता
धोरे बनाता
कुएँ से पानी
रस्सी के सहारे खींचता
बीज सींचता
विश्वास में लिपटा
शून्य था पसरा
आस-पास कोई वृक्ष न था
कुएँ से लौटी खाली बाल्टी
उसमें पानी भी कहाँ था?
अनीता सैनी 'दीप्ति'
आप ने लिखा.....
जवाब देंहटाएंहमने पड़ा.....
इसे सभी पड़े......
इस लिये आप की रचना......
दिनांक 28/05/2023 को
पांच लिंकों का आनंद
पर लिंक की जा रही है.....
इस प्रस्तुति में.....
आप भी सादर आमंत्रित है......
सुंदर कविता।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज रविवार (28-05-2023) को "कविता का आधार" (चर्चा अंक-4666) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जब वृक्ष नहीं तो पानी होने का विश्वास कैसा !
जवाब देंहटाएंपानी से वृक्ष तो वृक्षों से पानी
समझ आने तक बस प्रतीक्षारत !
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 31मई 2023 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंअथ स्वागतम शुभ स्वागतम।
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शून्य था पसरा
जवाब देंहटाएंआस-पास कोई वृक्ष न था
कुएँ से लौटी खाली बाल्टी
उसमें पानी भी कहाँ था
..समय की सच्चाई को रेखांकित करती अच्छी रचना।
गज़ब लिखती हैं अनीता जी, सब कुछ समेट दिया इस एक पंक्ति में ''बीज का वृक्ष हो जाना ही प्रतीक्षा है''... अद्भुत
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