मरुस्थल सरीखी आँखें / अनीता सैनी 'दीप्ति'
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उसने कहा-
मरुस्थल सरीखी आँखों में
मृगमरीचिका-सा भ्रम जाल होता है
क्योंकि बहुत पहले
मरुस्थल, मरुस्थल नहीं थे
वहाँ भी पानी के दरिया
जंगल हुआ करते थे
गिलहरियाँ ही नहीं उसमें
गौरैया के भी नीड़ हुआ करते थे
हवा के रुख़ ने उसे
मरुस्थल बना दिया
अब
कुछ पल टहलने आए बादल
कुलांचें भरते हैं
अबोध छौने की तरह
पढ़ते हैं मरुस्थल को
बादलों को पढ़ना आता है
जैसे विरहिणी पढ़ती है
उम्र भर एक ही प्रेम-पत्र बार-बार
वैसे ही
पढ़ा जाता है मरुस्थल को
मरुस्थल होना
नदी होने जितना सरल नहीं होता
सहज नहीं होता इंतज़ार में आँखें टाँकना
इच्छाओं के
एक-एक पत्ते को झड़ते देखना
बंजरपन किसी को नहीं सुहाता
मरुस्थल को भी नहीं
वहाँ दरारें होती हैं
एक नदी के विलुप्त होने की।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'