मरुस्थल सरीखी आँखें / अनीता सैनी 'दीप्ति'
…
उसने कहा-
मरुस्थल सरीखी आँखों में
मृगमरीचिका-सा भ्रम जाल होता है
क्योंकि बहुत पहले
मरुस्थल, मरुस्थल नहीं थे
वहाँ भी पानी के दरिया
जंगल हुआ करते थे
गिलहरियाँ ही नहीं उसमें
गौरैया के भी नीड़ हुआ करते थे
हवा के रुख़ ने उसे
मरुस्थल बना दिया
अब
कुछ पल टहलने आए बादल
कुलांचें भरते हैं
अबोध छौने की तरह
पढ़ते हैं मरुस्थल को
बादलों को पढ़ना आता है
जैसे विरहिणी पढ़ती है
उम्र भर एक ही प्रेम-पत्र बार-बार
वैसे ही
पढ़ा जाता है मरुस्थल को
मरुस्थल होना
नदी होने जितना सरल नहीं होता
सहज नहीं होता इंतज़ार में आँखें टाँकना
इच्छाओं के
एक-एक पत्ते को झड़ते देखना
बंजरपन किसी को नहीं सुहाता
मरुस्थल को भी नहीं
वहाँ दरारें होती हैं
एक नदी के विलुप्त होने की।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
बेहतरीन अभिव्यक्ति।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २३ जून २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (24-06-2023) को "गगन में छा गये बादल" (चर्चा अंक 4669) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंमरुस्थल जब आंखों में उतार आये तो द्योतक होता है वक़्त के थपेड़ों को सहने के निशान दिखते नहीं लेकिन होते हैं ।
जवाब देंहटाएंवाह! प्रिय अनीता ,लाजवाब सृजन ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर |
जवाब देंहटाएंबेहद उम्दा रचना। किसी को नहीं सुहाता
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर पंक्तियाँ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना, बहुत गहरा भाव।
जवाब देंहटाएंजैसे विरहिणी पढ़ती है
जवाब देंहटाएंउम्र भर एक ही प्रेम-पत्र बार-बार
वैसे ही
पढ़ा जाता है मरुस्थल को
मरुस्थल होना
बहुत सटीक, एवं सुन्दर...
लाजवाब सृजन
गहरी अभिव्यक्ति होती है आपकी ... मरुस्थल ...
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