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मंगलवार, जुलाई 25

सम्मोहन


सम्मोहन /अनीता सैनी 'दीप्ति'

जब कभी भी मैं 

कल्पना के एक छोर को 

अफलातून की

कल्पना शक्ति से बाँधती हूँ

तब वह मुझे

इस अँधेरी गुफा से बाहर 

निकालने का

भरसक प्रयास करती है

उजाले का सम्मोहन

आग के उस पार डोलती

परछाइयों का बुलावा 

प्रकृति के प्रकृतिमय 

एक-एक चित्र में रंग भरने के साथ 

प्राण फूँकने की प्रक्रिया का रहस्य 

गुफा के द्वार की ओर

पीठ नहीं 

मुँह करने का आग्रह करती है 

होता है; होता है कि रट से परे 

कौन? कैसे होता है?

भी पढ़ने का इशारा करती है

परंतु मेरा मन है कि 

किवाड़ के पीछे 

जंग खाई कील पर अटका है।


बुधवार, जुलाई 19

ठीक कहा!


ठीक कहा!

यह कहना कितना कठिन होता है

दुपहरी के लिए

जब वह

तप रही होती है सूरज के ताप से

विचलित अंबर

ओजोन के टूटने की पीड़ा

पीते हुए

रफ़ू टूटे तारों से करता है

कुछ पल ठहरती है रात

बनती है सहचर

नदी हथेली की रेखाओं से होकर

पड़ते-उठते गुज़रती चली जाती है

पहाड़ पर वापस न लौटने के संकेत के साथ

यहाँ नदी का न लौटना

नाराज़गी नहीं नियति है

और

तुम कहते हो-

"माँ काफ़ी नहीं होती बच्चों के लिए।"


अनीता सैनी 'दीप्ति'

शुक्रवार, जुलाई 7

पानी पहचानता है

पानी पहचानता है / अनीता सैनी 'दीप्ति'
....
एक इंसान 
दूसरे इंसान को कभी नहीं रौंदता 
वह स्वयं को रौंदता है 
स्वयं को बाँधता है 
भ्रम की रस्सी से
समय की देह पर पड़े निशान 
सदियों से देख रही हूँ मैं 
मानव की मौन प्रक्रिया
घट रही घटनाओं की 
साक्षी रही हूँ मैं 
पानी पहचानता है अपने तत्त्व को।
नदी ये शब्द 
शहर से गुज़रते हुए
एक पहाड़ी से कहती है 
नदी-इंसान के बीच का रहस्य खोजने 
शहर की ओर दौड़ती है पहाड़ी 
तभी से इंसान का नदी से नहीं 
पत्थरों से प्रेम बढ़ता रहा है।