शनिवार, अगस्त 19
राग
सोमवार, अगस्त 14
गाँव
गाँव / अनीता सैनी 'दीप्ति'
…..
मेरे अंदर का गाँव
शहर होना नहीं चाहता
नहीं चाहता सभ्य होना
घास-फूस की झोंपड़ी
मिट्टी पुती दीवार
जूते-चप्पल
झाड़ू छिपाने से परहेज करता
वह शहर होने से घबराता है
पूछता है- ”जीवन बसर करने हेतु
सभी को शहर होना होता है?”
आंतोनियो कहते हैं-
”मोहभंग न होते हुए
बिना भ्रम का जीवन जीना।”
जैसे मेड़ पर खड़े पेड़-पौधों के
शृंगार की धुलती मिट्टी
जीवंतता से भर देती है उन्हें
जीवन के कई-कई
अनछुए दिन-रात
दौड़ गए तिथियों की लँगोट पहने
शहर होने की होड़ में
अब पैरों से एक क्षण की बाड़
न लाँघी जाती
नुकीली डाब
पाँव में नहीं धँसती
हृदय को बिंधती है
न अंबर को छूना चाहता है
न पाताल में धँसना चाहता है
थोड़ी-सी जमी
मेरे अंदर का गाँव जीना चाहता है।
गुरुवार, अगस्त 3
संताप
संताप /अनीता सैनी 'दीप्ति'
….
उन्होंने कहा-
उन्हें दिखता है वे देख सकते हैं
आँखें हैं उनके पास
होने के
संतोष भाव से उठा गुमान
उन सभी के पास था
वे अपनी बनाई व्यवस्था के प्रति
सजगता के सूत कात रहे थे
सुःख के लिए किए कृत्य को
वे अधिकार की श्रणी में रखते
उनमें अधिकार की प्रबल भावना थी
नहीं सुहाता उन्हें!
वल्लरियों का स्वेच्छाचारी विस्तार
वे इन्हें जंगल कहते
उनमें समय-समय पर
काट-छाँट की प्रवृत्ति का अंकुर
फूटता रहता
वे नासमझी की हद से
पार उतर जाते, जब वे कहते-
उनके पास भाषा भी है
मैं मौन था, भाषा से अनभिज्ञ नहीं
वे शब्दों के व्यापारी थे, मैं नहीं
मुझे नहीं दिखता!
वह सब जो इन्हें दिखायी देता
नहीं दिखने के पैदा हुए भाव से
मैं पीड़ा में था, परीक्षित मौन
यह वाकया- बैल ने गाय से कहा।