गाँव / अनीता सैनी 'दीप्ति'
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मेरे अंदर का गाँव
शहर होना नहीं चाहता
नहीं चाहता सभ्य होना
घास-फूस की झोंपड़ी
मिट्टी पुती दीवार
जूते-चप्पल
झाड़ू छिपाने से परहेज करता
वह शहर होने से घबराता है
पूछता है- ”जीवन बसर करने हेतु
सभी को शहर होना होता है?”
आंतोनियो कहते हैं-
”मोहभंग न होते हुए
बिना भ्रम का जीवन जीना।”
जैसे मेड़ पर खड़े पेड़-पौधों के
शृंगार की धुलती मिट्टी
जीवंतता से भर देती है उन्हें
जीवन के कई-कई
अनछुए दिन-रात
दौड़ गए तिथियों की लँगोट पहने
शहर होने की होड़ में
अब पैरों से एक क्षण की बाड़
न लाँघी जाती
नुकीली डाब
पाँव में नहीं धँसती
हृदय को बिंधती है
न अंबर को छूना चाहता है
न पाताल में धँसना चाहता है
थोड़ी-सी जमी
मेरे अंदर का गाँव जीना चाहता है।
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 16अगस्त 2023 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंअथ स्वागतम शुभ स्वागतम।
सुन्दर
जवाब देंहटाएंवाह! सुंदर कामना, शहर होना सबके लिए ज़रूरी तो नहीं
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत भावपूर्ण भावाभिव्यक्ति । शहरों की नींव का आधार गाँव ही होते हैं जो अक्सर महसूस होते हैं अपनी झलक के साथ ।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंसुंदर भाव
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