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शुक्रवार, सितंबर 29

तिरता फूल


तिरता फूल / अनीता सैनी 'दीप्ति'

...

घर की दीवारों से टकराते विचार 

वे पहचानने से इंकार करती हैं

आँगन भी बुझा-बुझा-सा रहता है!

मैंने कब उससे

अपनी कमाई का हिसाब माँगा है?

अंतस के पानी ने 

भावों की डंडी से रंगों का घोल बनाया 

वे वृत्तियों के साथ तिरकर

मन की सतह पर आ बैठे  

शिकायत साझा नहीं कर रहा हूँ 

अपनों से मिलने की तड़प सिसकियाँ भर रही थीं 

 कि मैं

उतावलेपन में जवानी सरहद पर भूल आया।

शनिवार, सितंबर 23

नदी


नदी / अनीता सैनी 'दीप्ति'

…..

इंतज़ार में

लौटने की ख़ुशबु होती है

 जैसे- लौट आता है सावन

चंग के साथ फागुनी धमाल।

परंतु

 पहाड़ के अनुराग में

पगी नदी

ज़मीन पर नहीं लौटना चाहती 

पत्थरों की ओट में छिपकर

पहाड़ की आत्मा में खो जाना चाहती है।

समुद्र की तलहटी में खिले

प्रेम पुष्प

मौन से सींचना चाहती है।

जब तुम कहते हो-

नदी को मौन घोंटता है।

तब तुम्हें पलटकर कहती है-

मैं मौन को घोंटती हूँ।

जितना घोटूँगी

प्रीत रंग उतना गहरा चढ़ेगा।

 वह मरुस्थल में नहीं उतरना चाहती

मरुस्थल एक घूँट में पी जाना चाहता है।

और न ही मैदान में दौड़ना चाहती है।

 वहाँ!  तुम उसे 

माँ! कहकर मार देना चाहते हो।

रविवार, सितंबर 10

तुम्हें पता है


तुम्हें पता है / अनीता सैनी 'दीप्ति'

…..

तुम्हें पता है! ये जो तारे हैं ना  

ये अंबर की

हथेली की लकीरों पर उगे 

चेतना के वृक्ष के फूल हैं

झरते फूलों का 

सात्विक रूप है  काया।


 सृष्टि के 

गर्भ में अठखेलियाँ भरता मानव रूपी अंश 

जन्म नहीं लेता ,गर्भ बदलता है

जैसे गर्भ बदलता है प्रकृति का कण-कण 

तुम जिसे जन्म कहते हो,

 हो न हो यह भी प्रकृति के गर्भ में तुम्हारी छाया है 

सागर में तिरते चाँद का प्रतिबिंब

बुलावा भेजता है इसे।


तभी, तुम्हें बार-बार कहती हूँ 

निर्विचार आत्मा पर जीत हासिल नहीं की जाती 

उसे पढ़ा जाता है

जैसे-

पढ़ती हैं मछलियाँ चाँद को

और चाँद पढ़ता है, लहरों को।


                 

बुधवार, सितंबर 6

चूक


चूक / अनीता सैनी 'दीप्ति'

….

प्रिये ने 

बादलों पर घोर अविश्वास जताते हुए 

खिन्न हृदय से चिट्ठी चाँद को सुपुर्द की 

मैंने कहा- यक्ष को पीड़ा होगी

उन्होंने कहा-

बादल भटक जाते हैं।

  यही कोई

रात का अंतिम पहर रहा होगा

चाँद दरीचे में उतरा ही रहा था 

तारों ने आँगन की बत्ती बुझा रखी थी 

रात्रि गहरा काला ग़ुबार लिए खड़ी थी

जैसे आषाढ़ बरसने को बेसब्रा हो

और कह रहा हो-

'नैना मोरे तरस गए आजा बलम परदेशी।'

 ऊँघते इंतज़ार की पलकें झपकी 

चेतना चिट्ठी पढ़ने से चूक गई

चुकने पर उठी गहरी टीस

जीवन ने नमक के स्वाद का

पहला निवाला चखा।