तिरता फूल / अनीता सैनी 'दीप्ति'
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घर की दीवारों से टकराते विचार
वे पहचानने से इंकार करती हैं
आँगन भी बुझा-बुझा-सा रहता है!
मैंने कब उससे
अपनी कमाई का हिसाब माँगा है?
अंतस के पानी ने
भावों की डंडी से रंगों का घोल बनाया
वे वृत्तियों के साथ तिरकर
मन की सतह पर आ बैठे
शिकायत साझा नहीं कर रहा हूँ
अपनों से मिलने की तड़प सिसकियाँ भर रही थीं
कि मैं
उतावलेपन में जवानी सरहद पर भूल आया।