तुम्हें पता है / अनीता सैनी 'दीप्ति'
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तुम्हें पता है! ये जो तारे हैं ना
ये अंबर की
हथेली की लकीरों पर उगे
चेतना के वृक्ष के फूल हैं
झरते फूलों का
सात्विक रूप है काया।
सृष्टि के
गर्भ में अठखेलियाँ भरता मानव रूपी अंश
जन्म नहीं लेता ,गर्भ बदलता है
जैसे गर्भ बदलता है प्रकृति का कण-कण
तुम जिसे जन्म कहते हो,
हो न हो यह भी प्रकृति के गर्भ में तुम्हारी छाया है
सागर में तिरते चाँद का प्रतिबिंब
बुलावा भेजता है इसे।
तभी, तुम्हें बार-बार कहती हूँ
निर्विचार आत्मा पर जीत हासिल नहीं की जाती
उसे पढ़ा जाता है
जैसे-
पढ़ती हैं मछलियाँ चाँद को
और चाँद पढ़ता है, लहरों को।
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" सोमवार 11 सितंबर 2023 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" सोमवार 11 सितंबर 2023 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंवाह! बहुत खूबसूरत सृजन प्रिय अनीता
जवाब देंहटाएंभाव जन्म नहीं लेते ... पर क्या सच में ऐसा होता है ...
जवाब देंहटाएंनव भाव ही सिजक को जीवित रखते हैं ... पर ये भी सच है की किसी के प्रति, प्रेम के प्रति उपजे भाव सदा वही रहते हैं ...