रविवार, दिसंबर 31
क्षणिकाएँ
शब्द
शब्द /अनीता सैनी ‘दीप्ति’
….
हवा-पानी
और प्रकाश की तरह
शब्दों की भी
सरहदें नहीं होती,
शब्द
दौड़ते हैं
ध्वनि वेग से
मूक-अमूक भावों के
स्पर्श हेतु
संवेदनाओं का नाद
गहरा प्रभाव छोड़ता है
हृदय पर
क्योंकि शब्द
हृदय की उपज है
मुख की नहीं।
शनिवार, दिसंबर 9
उसकी चेतना
शुक्रवार, दिसंबर 1
शिव
शिव / अनीता सैनी ‘ दीप्ति’
….
टूटकर
बिखरी सांसें
भाव
मोतियों से चमक उठे
महावर सजे पैर
भोर!
दुल्हन बन उतरी थी
धरती पर।
उस दिन
समर्पण के सागर में
तिर रहा था उज्जैन
भस्म
बादलों से बरसी
मन के एक कोने में उगा
सूरज
मन मोह रहे थे
महादेव
गर्भगृह की चौखट पर बैठी
मैं
एक-टक निहार रही थी कि
हृदय की रिक्तता ने तोड़ा बाँध
पलकें भीग गईं
तब उसने कहा-
“काशी में मिलेंगे तुम्हें
शिव, कबीर
तुम समर्पण लेते हुए जाना।”
रविवार, नवंबर 26
पूर्व-स्मृति
पूर्व-स्मृतियाँ / अनीता सैनी ’दीप्ति’
…
उन दिनों प्रेम को केवल
कैवल्य की पुकार सुनाई देती थी
उसके पास
एकनिष्ठता के परकोटे में अकेलापन था
एकांत नहीं!
मिट्टी के टीलों के उस पार
उदास साँझ को विदा करता
वह सोचता कि
प्रतीक्षा-गीत गाते-गाते क्यों रूँध जाता है
साँझ का भी कंठ?
बर्फ़ का फोहा
फफकती सांसों पर रखता
स्वयं के चुकते जाने को खुरचता
मन की शिला पर भावों के जूट को कूटकर
समय की मशाल में जलावण भरता
ढलती उम्र के निशान
देह पर दौड़ जाते सर्प से।
चिट्ठी में
प्रियतम को मरुस्थल की तपती रेत लिखता
प्रियतम हिमालय की कुँआरी हिम
दायित्व-बोध पृथ्वी की धुरी-सा घूमता
वहीं खो गए दोनों के जीवन पद-चिह्न
एक के हिमालय की बर्फ में
दूसरे के मरुस्थल की रेत में।
शुक्रवार, सितंबर 29
तिरता फूल
तिरता फूल / अनीता सैनी 'दीप्ति'
...
घर की दीवारों से टकराते विचार
वे पहचानने से इंकार करती हैं
आँगन भी बुझा-बुझा-सा रहता है!
मैंने कब उससे
अपनी कमाई का हिसाब माँगा है?
अंतस के पानी ने
भावों की डंडी से रंगों का घोल बनाया
वे वृत्तियों के साथ तिरकर
मन की सतह पर आ बैठे
शिकायत साझा नहीं कर रहा हूँ
अपनों से मिलने की तड़प सिसकियाँ भर रही थीं
कि मैं
उतावलेपन में जवानी सरहद पर भूल आया।
शनिवार, सितंबर 23
नदी
नदी / अनीता सैनी 'दीप्ति'
…..
इंतज़ार में
लौटने की ख़ुशबु होती है
जैसे- लौट आता है सावन
चंग के साथ फागुनी धमाल।
परंतु
पहाड़ के अनुराग में
पगी नदी
ज़मीन पर नहीं लौटना चाहती
पत्थरों की ओट में छिपकर
पहाड़ की आत्मा में खो जाना चाहती है।
समुद्र की तलहटी में खिले
प्रेम पुष्प
मौन से सींचना चाहती है।
जब तुम कहते हो-
नदी को मौन घोंटता है।
तब तुम्हें पलटकर कहती है-
मैं मौन को घोंटती हूँ।
जितना घोटूँगी
प्रीत रंग उतना गहरा चढ़ेगा।
वह मरुस्थल में नहीं उतरना चाहती
मरुस्थल एक घूँट में पी जाना चाहता है।
और न ही मैदान में दौड़ना चाहती है।
वहाँ! तुम उसे
माँ! कहकर मार देना चाहते हो।
रविवार, सितंबर 10
तुम्हें पता है
तुम्हें पता है / अनीता सैनी 'दीप्ति'
…..
तुम्हें पता है! ये जो तारे हैं ना
ये अंबर की
हथेली की लकीरों पर उगे
चेतना के वृक्ष के फूल हैं
झरते फूलों का
सात्विक रूप है काया।
सृष्टि के
गर्भ में अठखेलियाँ भरता मानव रूपी अंश
जन्म नहीं लेता ,गर्भ बदलता है
जैसे गर्भ बदलता है प्रकृति का कण-कण
तुम जिसे जन्म कहते हो,
हो न हो यह भी प्रकृति के गर्भ में तुम्हारी छाया है
सागर में तिरते चाँद का प्रतिबिंब
बुलावा भेजता है इसे।
तभी, तुम्हें बार-बार कहती हूँ
निर्विचार आत्मा पर जीत हासिल नहीं की जाती
उसे पढ़ा जाता है
जैसे-
पढ़ती हैं मछलियाँ चाँद को
और चाँद पढ़ता है, लहरों को।
बुधवार, सितंबर 6
चूक
चूक / अनीता सैनी 'दीप्ति'
….
प्रिये ने
बादलों पर घोर अविश्वास जताते हुए
खिन्न हृदय से चिट्ठी चाँद को सुपुर्द की
मैंने कहा- यक्ष को पीड़ा होगी
उन्होंने कहा-
बादल भटक जाते हैं।
यही कोई
रात का अंतिम पहर रहा होगा
चाँद दरीचे में उतरा ही रहा था
तारों ने आँगन की बत्ती बुझा रखी थी
रात्रि गहरा काला ग़ुबार लिए खड़ी थी
जैसे आषाढ़ बरसने को बेसब्रा हो
और कह रहा हो-
'नैना मोरे तरस गए आजा बलम परदेशी।'
ऊँघते इंतज़ार की पलकें झपकी
चेतना चिट्ठी पढ़ने से चूक गई
चुकने पर उठी गहरी टीस
जीवन ने नमक के स्वाद का
पहला निवाला चखा।
शनिवार, अगस्त 19
राग
सोमवार, अगस्त 14
गाँव
गाँव / अनीता सैनी 'दीप्ति'
…..
मेरे अंदर का गाँव
शहर होना नहीं चाहता
नहीं चाहता सभ्य होना
घास-फूस की झोंपड़ी
मिट्टी पुती दीवार
जूते-चप्पल
झाड़ू छिपाने से परहेज करता
वह शहर होने से घबराता है
पूछता है- ”जीवन बसर करने हेतु
सभी को शहर होना होता है?”
आंतोनियो कहते हैं-
”मोहभंग न होते हुए
बिना भ्रम का जीवन जीना।”
जैसे मेड़ पर खड़े पेड़-पौधों के
शृंगार की धुलती मिट्टी
जीवंतता से भर देती है उन्हें
जीवन के कई-कई
अनछुए दिन-रात
दौड़ गए तिथियों की लँगोट पहने
शहर होने की होड़ में
अब पैरों से एक क्षण की बाड़
न लाँघी जाती
नुकीली डाब
पाँव में नहीं धँसती
हृदय को बिंधती है
न अंबर को छूना चाहता है
न पाताल में धँसना चाहता है
थोड़ी-सी जमी
मेरे अंदर का गाँव जीना चाहता है।
गुरुवार, अगस्त 3
संताप
संताप /अनीता सैनी 'दीप्ति'
….
उन्होंने कहा-
उन्हें दिखता है वे देख सकते हैं
आँखें हैं उनके पास
होने के
संतोष भाव से उठा गुमान
उन सभी के पास था
वे अपनी बनाई व्यवस्था के प्रति
सजगता के सूत कात रहे थे
सुःख के लिए किए कृत्य को
वे अधिकार की श्रणी में रखते
उनमें अधिकार की प्रबल भावना थी
नहीं सुहाता उन्हें!
वल्लरियों का स्वेच्छाचारी विस्तार
वे इन्हें जंगल कहते
उनमें समय-समय पर
काट-छाँट की प्रवृत्ति का अंकुर
फूटता रहता
वे नासमझी की हद से
पार उतर जाते, जब वे कहते-
उनके पास भाषा भी है
मैं मौन था, भाषा से अनभिज्ञ नहीं
वे शब्दों के व्यापारी थे, मैं नहीं
मुझे नहीं दिखता!
वह सब जो इन्हें दिखायी देता
नहीं दिखने के पैदा हुए भाव से
मैं पीड़ा में था, परीक्षित मौन
यह वाकया- बैल ने गाय से कहा।
मंगलवार, जुलाई 25
सम्मोहन
सम्मोहन /अनीता सैनी 'दीप्ति'
…
जब कभी भी मैं
कल्पना के एक छोर को
अफलातून की
कल्पना शक्ति से बाँधती हूँ
तब वह मुझे
इस अँधेरी गुफा से बाहर
निकालने का
भरसक प्रयास करती है
उजाले का सम्मोहन
आग के उस पार डोलती
परछाइयों का बुलावा
प्रकृति के प्रकृतिमय
एक-एक चित्र में रंग भरने के साथ
प्राण फूँकने की प्रक्रिया का रहस्य
गुफा के द्वार की ओर
पीठ नहीं
मुँह करने का आग्रह करती है
होता है; होता है कि रट से परे
कौन? कैसे होता है?
भी पढ़ने का इशारा करती है
परंतु मेरा मन है कि
किवाड़ के पीछे
जंग खाई कील पर अटका है।
बुधवार, जुलाई 19
ठीक कहा!
ठीक कहा!
यह कहना कितना कठिन होता है
दुपहरी के लिए
जब वह
तप रही होती है सूरज के ताप से
विचलित अंबर
ओजोन के टूटने की पीड़ा
पीते हुए
रफ़ू टूटे तारों से करता है
कुछ पल ठहरती है रात
बनती है सहचर
नदी हथेली की रेखाओं से होकर
पड़ते-उठते गुज़रती चली जाती है
पहाड़ पर वापस न लौटने के संकेत के साथ
यहाँ नदी का न लौटना
नाराज़गी नहीं नियति है
और
तुम कहते हो-
"माँ काफ़ी नहीं होती बच्चों के लिए।"
शुक्रवार, जुलाई 7
पानी पहचानता है
गुरुवार, जून 22
मरुस्थल सरीखी आँखें
मरुस्थल सरीखी आँखें / अनीता सैनी 'दीप्ति'
…
उसने कहा-
मरुस्थल सरीखी आँखों में
मृगमरीचिका-सा भ्रम जाल होता है
क्योंकि बहुत पहले
मरुस्थल, मरुस्थल नहीं थे
वहाँ भी पानी के दरिया
जंगल हुआ करते थे
गिलहरियाँ ही नहीं उसमें
गौरैया के भी नीड़ हुआ करते थे
हवा के रुख़ ने उसे
मरुस्थल बना दिया
अब
कुछ पल टहलने आए बादल
कुलांचें भरते हैं
अबोध छौने की तरह
पढ़ते हैं मरुस्थल को
बादलों को पढ़ना आता है
जैसे विरहिणी पढ़ती है
उम्र भर एक ही प्रेम-पत्र बार-बार
वैसे ही
पढ़ा जाता है मरुस्थल को
मरुस्थल होना
नदी होने जितना सरल नहीं होता
सहज नहीं होता इंतज़ार में आँखें टाँकना
इच्छाओं के
एक-एक पत्ते को झड़ते देखना
बंजरपन किसी को नहीं सुहाता
मरुस्थल को भी नहीं
वहाँ दरारें होती हैं
एक नदी के विलुप्त होने की।
शनिवार, मई 27
प्रतीक्षारत
बँधी भावना निबाहते
हाथ से मिट्टी झाड़ते हुए
खुरपी से उठी निगाहों ने
क्षणभर वार्तालाप के बाद
अंबर से
गहरे विश्वास को दर्शाया
चातक पक्षी की तरह
कैनवास पर लिखा था-
प्रतीक्षारत!
"किसी बीज का वृक्ष
हो जाना ही प्रतीक्षा है।”
अज्ञेय के शब्दों के सहारे
कविता में
स्वयं को आवाज़ लगाता
धोरे बनाता
कुएँ से पानी
रस्सी के सहारे खींचता
बीज सींचता
विश्वास में लिपटा
शून्य था पसरा
आस-पास कोई वृक्ष न था
कुएँ से लौटी खाली बाल्टी
उसमें पानी भी कहाँ था?
अनीता सैनी 'दीप्ति'
बुधवार, मई 17
योगी मन
गुरुवार, मई 11
उसने कहा
"उस महल की नींव में
न जाने कितने ही मासूम परिंदे
दफ़नाए गए हैं
महल की रखवाली के लिए
कितना कुछ दफ़न है ना
हमारे इर्द-गिर्द।"
उसने मेरी ओर देखते हुए कहा
मैंने पूछते हुए टोका
"और उस घर की नींव में?"
ख़ामोशी से घूरता रहा वह
ख़ुद की परछाई को पानी में
घिस चुकी इच्छाएँ
तैर रही थीं
मछली की तरह
उन्हें उच्चारना ही नहीं
उकेरना भी भूल गया
भावशिल्प ही नहीं
शब्द शिल्प भी
आँखें धुँधरा गई
बेमौसम की बारिशें पीकर
पलकें भीगी न बूँद छलकी
वे बस बुद्धमय हो गईं।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
गुरुवार, मई 4
मैं का अंकुर
शनिवार, अप्रैल 29
चिट्ठी
सुरमई साँझ होले-होले
उतरने लगे जब धरती पर
घरौंदो में लौटने लगे पंछी
तब फ़ुर्सत में कान लगाकर
तुम! हवा की सुगबुगाहट सुनना
बैठना पहाड़ों के पास
बेचैनी इनकी पढ़ना
संदेशवाहक ने
नहीं पहुँचाए संदेश इनके
श्योक से नहीं इस बार तुम
सिंधु से मिलना
जीवन के कई रंग लिए बहती है
तुम्हारे पीछे पर्वत के उस पार
जहाँ उतरी थी सांध्या
तुम कुछ मत कहना
एक गीत गुनगुना लेना
छू लेना रंग प्रीत का
हाथों का स्पर्श बहा देना
छिड़क देना चुटकी भर थकान
आसमान भर परवाह
प्रेम की नमी तुम पैर सिंधु में भिगो लेना।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
शनिवार, अप्रैल 15
तथागत
अबकी बार
पूर्णिमा की आधी रात को
गृहस्थ जीवन से विमुख होकर
जंगल-जंगल नहीं भटकेंगे तथागत
और न ही
पहाड़ नदी किनारे खोजेंगे सत
उन्होंने एकांतवास का
मोह त्याग दिया है
त्याग दिया है
बरगद की छाँव में
आत्मलीन होने के विचार को
उस दिन वे मरुस्थल से
मिलने का वादा निभाएंगे
भटकती आँधियाँ
उफनते ज्वार-भाटे
रेत पर समंदर के होने का एहसास देख
जागृत होगी चेतना उनकी
वे उसका का माथा सहलाएंगे
तपती काया पर
आँखों का पानी उड़ेलेंगे
मरुस्थल का दुःख पवित्र है
उसे आँसुओं से धोएंगे
उसकी देह के
बनते-बिगड़ते धोरों की मुट्ठी में
बंद हैं
तुम्हारी स्मृतियों के मोती।
मंगलवार, मार्च 28
भिक्षुक
वह भिक्षुक
निरा भिक्षुक ही था !!
उसने हवा चखी, दिन-रात भोगे
रश्मियों को गटका
चाँद से चतुराई की
यहाँ तक
पानी से खिलवाड़ करता
पेड़-पौधों को लीलता गया
मैंने कहा-
भाई! सुबह से शाम तक कितना जुटा लेते हो ?
वह एक टक घूरता रहा
परंतु वे आँखें उसकी न थीं
कुछ समय पश्चात बड़बड़ाया
वे शब्द भी उसके अपने कमाए न थे
गर्दन के पीछे
अपने दोनों हाथ कसकर जकड़ता है
दीवार का सहारा लेता है
सोए विचारों को जगाने का प्रयास करता है
परंतु वे विचार भी उसके अपने न थे
उसकी अपनी कमाई पूँजी कुछ न थी
आँखें, न आवाज़ और न ही विचार
उधारी पर टिका जीवन
बद से बदतर होता गया
पश्चाताप की अग्नि में
जलता हुआ आज कहता है-
मैं अपनी आवाज़
अपने विचार और आँखें चाहता हूँ
बहुत पीड़ादायक होता है भाई!
डेमोक्रेसी में आवाज़ का खो जाना।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
रविवार, मार्च 19
पहाड़
कुछ लोग उसे
पहाड़ कहते थे, कुछ पत्थरों का ढ़ेर
उन सभी का अपना-अपना मंतव्य
उनके अपने विचारों से गढ़ा सेतु था
आघात नहीं पहुँचता शब्दों से उसे
परंतु अभी भी
टुकड़ों-टुकड़ों में तोड़े जाने की प्रक्रिया
या कहें…
खनन कार्य अब भी जारी था
कार्य प्रगति पर था
सभी के दिलों में उल्लास था
पत्थर उठाओ, पत्थर हटाओ की रट
सुबह से शाम तक हवा में गूँजती
हवा भी अब इस शोर से परेशान थी
लाँघ जाता उसके लिए पत्थर
टकरा जाता वह कहता था पहाड़
परंतु अब वह फूल नहीं था
उसे फूल होना गवारा नहीं था
उसे मसला जाना गवारा नहीं था।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
रविवार, फ़रवरी 26
औरतें
तुम ठीक ही कहते हो!
ये औरतें भी ना…बड़ी भुलक्कड़ होती हैं
बड़ी जल्दी ही सब भूल जाती हैं
भूल जाती हैं!
चुराई उम्र की शिकायत दर्ज करवाना
ऐसी घुलती-मिलती हैं हवा संग कि
धुप-छाव का ख़याल ही भूल जाती हैं
भूलने की बड़ी भारी बीमारी होती है इन्हें
याद ही कहाँ रहता है कुछ
चप्पल की साइज़ तो छोड़ो
अपने ही पैरों के निशान भूल जाती हैं
मान-सम्मान का ओढ़े उधड़ा खेश
गस खाती ख़ुद से बतियाती रहती हैं
भूल की फटी चादर बिछाए धरणी-सी
परिवार के स्वप्न सींचती रहती हैं
बचपन का आँगन तो भूली सो भूली
ख़ून के रिश्तों के साथ-साथ भूल जाती हैं!
चूल्हे की गर्म रोटी का स्वाद
रात की बासी रोटी बड़े चाव से खातीं
अन्न को सहेजना सिखाती हैं
सच ही कहते हो तुम
ये औरतें भी न बड़ी भुलक्कड़ होती हैं
समय के साथ सब भूल जाती हैं।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'