तुम्हारे पैरों के निशान / अनीता सैनी
२०जनवरी २०२४
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उसने कहा-
सिंधु की बहती धारा
बहुत दिनों से बर्फ़ में तब्दील हो गई है
उसके ठहर जाने से
विस्मय नहीं
सर्दियों में हर बार
बर्फ़ में तब्दील हो जम जाती है
न जाने क्यों?
इस बार इसे देख! ज़िंदा होने का
भ्रम मिट गया है
दर्द की कमाई जागीर
अब संभाले नहीं संभलती
पीड़ा से पर्वत पिघलने लगे हैं
दृश्य देखा नहीं जाता
दम घुटता है
ऑक्सीजन की कमी है?
या
कविता समझ आने लगी हैं।
व्वाहहहहहह
जवाब देंहटाएंसादर
भावपूर्ण रचना।
जवाब देंहटाएंसादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार २३ जनवरी २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत बढ़िया।
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंपीड़ा से पर्वत पिघलने लगे हैं
जवाब देंहटाएंदृश्य देखा नहीं जाता
ऑक्सीजन की कमी है?
या
कविता समझ आने लगी हैं।
कविता समझ आने लगी है !
दर्द तभी समझेगा न....
वाह!!!!
सुन्दर
जवाब देंहटाएंवाह! प्रिय अनीता ,बेहतरीन।
जवाब देंहटाएंदर्द और कविता का गहरा नाता जो है
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
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