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सोमवार, जनवरी 22

तुम्हारे पैरों के निशान

तुम्हारे पैरों के निशान / अनीता सैनी

२०जनवरी २०२४

…..

उसने कहा-

सिंधु की बहती धारा 

बहुत दिनों से बर्फ़ में तब्दील हो गई है

उसके ठहर जाने से 

विस्मय नहीं

सर्दियों में हर बार

बर्फ़ में तब्दील हो जम जाती है 

न जाने क्यों?

इस बार इसे देख! ज़िंदा होने का

भ्रम मिट गया है

दर्द की कमाई जागीर

अब संभाले नहीं संभलती 

पीड़ा से पर्वत पिघलने लगे हैं 

दृश्य देखा नहीं जाता  

दम घुटता है 

ऑक्सीजन की कमी है?

या

कविता समझ आने लगी हैं।

                      

10 टिप्‍पणियां:

  1. भावपूर्ण रचना।
    सादर।
    ----
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना मंगलवार २३ जनवरी २०२४ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  2. सुंदर प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  3. पीड़ा से पर्वत पिघलने लगे हैं

    दृश्य देखा नहीं जाता

    ऑक्सीजन की कमी है?

    या

    कविता समझ आने लगी हैं।

    कविता समझ आने लगी है !
    दर्द तभी समझेगा न....
    वाह!!!!

    जवाब देंहटाएं
  4. वाह! प्रिय अनीता ,बेहतरीन।

    जवाब देंहटाएं
  5. दर्द और कविता का गहरा नाता जो है

    जवाब देंहटाएं