पीड़ा / कविता / अनीता सैनी
६फरवरी २०२४
……
उन दिनों
घना कुहासा हो या
घनी काली रात
वे मौन में छुपे शब्द पढ़ लेते थे
दिन का कोलाहल हो या
रात में झींगुरों का स्वर
वे चुप्पी की पीड़ा
बड़ी सहजता से सुन लेते थे
प्रेम की अनकही भाषा पर
गहरी पकड़ थी
समाज के बाँधे बंधन
अछूते थे उसके लिए
यही कहा-
“तुम पुकारना, मैं लौट आऊँगा।”
परंतु जाते वक़्त सखी!
पुकारने की भाषा नहीं बताई।
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