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रविवार, फ़रवरी 11

धोरों का सूखता पानी


धोरों का सूखता पानी / कविता / अनीता सैनी

….

उस दिन

उसके घर का दीपक नहीं

सूरज का एक कोर टूटा था

जो ढिबरी वर्षों से 

आले में संभालकर रखी है तुमने 

वह उसी का टुकड़ा है।


धोरों की धूल का दोष नहीं

सदियाँ बीत गईं

यहाँ! दुःख, पश्चात्ताप के पदचिह्न ही नहीं!

नहीं!! मिलते वे देवता

जो पानी के लिए पूजे जाते थे

इंसान ही नहीं!

पानी भी बहुत गहरे चला गया है

 तुम! पूछो रोहिड़े से

कैसे बहलाता है?भरी दुपहरी में अपने मन को।


तुम! ये जो बार-बार

पानी में डुबोकर

कमीज़ झाड़ रहे हो न

इस पर काले पड़ चुके अश्रु नहीं धुलेंगे

उस लड़की के पिता ने कहा है-

“मैं पिछले दो दशक से सोया नहीं हूँ।”


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