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बुधवार, जुलाई 31

अकेला

अकेला / अनीता सैनी 
३०जुलाई२०२४
……
मैंने 
वृक्ष की छाँव का मोह छोड़ दिया
फूलों से लदी टहनियों का भी 
छोड़ देना 
युद्ध से मुक्ति पाना है 
स्वयं के साथ लड़े जाने वाला युद्ध 
नहीं!वृक्ष की छाया नहीं थी वह 
वह एक भ्रम था जिसे 
मैं आजीवन पोषित करता रहा 
नहीं! वह भ्रम भी नहीं था 
वह मेरे 
मन के द्वारा भावों का बुना जाल था 
मकड़ जाल
तब मैं मकड़ी था और वह मकड़ जाल 
जाल में लिपटी काया दरकने लगी  
जैसे 
दरक जाती है ओस से बनी दीवार
मदद करो 
मदद करो, जीवन आवाज़ लगता रहा 
छाँव, भ्रम और मकड़ जाल हँसते रहे 
हँसना इनके खून में था 
परंतु उसे पता था 
मरुस्थल पाँव नहीं जलता 
ना ही वहाँ प्यास सताती है 
मरुस्थल में सतत बहता जीवन 
वीरानियाँ को सींचता है
हँसता नहीं।

बुधवार, जुलाई 17

गिरह

गिरह / अनीता सैनी 
१६ जुलाई २०२४
…….
गर्भ में पलता भविष्य 
अतीत के 
फफोलों पर लुढ़कता आँखों का गर्म पानी 
तुम्हारी करुणा की कहानी कहता है 
 
नथुनों से उड़ती आँधी
दिमाग़ के कई-कई किंवाड़ तोड़कर 
वर्तमान को गढ़ती  
सपनों पर पड़े निशान ही नहीं 
तुम्हारे वर्चस्व की दौड़ पढ़ाती है 


सांसों में फूटते गीत,भावों का हरापन 
कंदराओं का शृंगार ही नहीं 
तुझ में धरा को पल्लवित करता है 

हे मनस्वी!
मुक्त कर दो उन तमाम स्त्रीयों को
जो झेल रही हैं गंभीर संकटकाल 
तुम्हारी गिरह में…


शनिवार, जुलाई 13

आह! ज़िंदगी


आह! ज़िंदगी / अनीता सैनी 

१२जुलाई २०२४

……

…..और कुछ नहीं 

वे स्वीकार्य-सीमा की मेड़ पर खड़े 

गहरे स्पर्श करते अंकुरित भाव थे 

न जाने कब बरसात का पानी पी कर 

 अस्वीकार्य हो गए 

आह! ज़िंदगी लानत है तुझ पर 

भूला देना  खेल तो नहीं 

इंतजार में हैं वे आँखें वहीं जहाँ बिछड़े थे 

बार-बार उसी रास्ते की ओर 

पैरों की दौड़ का 

ये सच भी तूने भ्रम हेतु गढ़ा  

वे नहीं लौटेंगे 

कभी नहीं लौटेंगे 

सभी कुछ जानते होते हुए भी 

मैंने 

प्रतीक्षा की बंदनवार में 

साँसों की कौड़ी जड़

स्मृतियों के स्वस्तिक 

आत्मा की चौखट पर टांग दिए हैं 

एक बार फिर तुझे सँवारने के लिए।

शनिवार, जुलाई 6

बरसाती झोंका

बरसाती झोंका / अनीता सैनी 
०४जुलाई २०२४
………
उन दिनों 
ब्रिज पर टहलते हुए 
हमें
चुप्पियों ने जकड़ लिया 
आत्मा पर हथकड़ियाँ डाली 
अब हम 
प्रेम की कोठरी में कैदी थे 
अंधेरा डराता ना उज्जाला हँसाता 
हम रात-रानी के फूल से महकते 
तब भी हमें 
चुप्पियों ने जकड़ रखा था
परंतु 
तब हम बातें करते थे
वे मेरे गले का ऐसा हार थे 
जिससे मैं 
दुनिया के सामने 
ना धारण कर सकती थी
 और ना ही 
उतार कर फेंक सकती थी 
मोह के दल-दल में धँसते  
मेरे चोटिल भाव 
कंठ ने सिसकियाँ सोखी 
उनकी बोलती आँखें  
वे ब्रिज से सटे 
जंगल की ओर संकेत करतीं 
कैसे कहती उन्हें?
मेरे पाँव ने 
स्वार्थ की चप्पल पहनी हैं 
जिससे तुम अनभिज्ञ हो।