बरसाती झोंका / अनीता सैनी
०४जुलाई २०२४
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उन दिनों
ब्रिज पर टहलते हुए
हमें
चुप्पियों ने जकड़ लिया
आत्मा पर हथकड़ियाँ डाली
अब हम
प्रेम की कोठरी में कैदी थे
अंधेरा डराता ना उज्जाला हँसाता
हम रात-रानी के फूल से महकते
तब भी हमें
चुप्पियों ने जकड़ रखा था
परंतु
तब हम बातें करते थे
वे मेरे गले का ऐसा हार थे
जिससे मैं
दुनिया के सामने
ना धारण कर सकती थी
और ना ही
उतार कर फेंक सकती थी
मोह के दल-दल में धँसते
मेरे चोटिल भाव
कंठ ने सिसकियाँ सोखी
उनकी बोलती आँखें
वे ब्रिज से सटे
जंगल की ओर संकेत करतीं
कैसे कहती उन्हें?
मेरे पाँव ने
स्वार्थ की चप्पल पहनी हैं
जिससे तुम अनभिज्ञ हो।
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" सोमवार 08 जुलाई 2024 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंसुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सराहनीय सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंलाजवाब रचना।
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