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बुधवार, जुलाई 31

अकेला

अकेला / अनीता सैनी 
३०जुलाई२०२४
……
मैंने 
वृक्ष की छाँव का मोह छोड़ दिया
फूलों से लदी टहनियों का भी 
छोड़ देना 
युद्ध से मुक्ति पाना है 
स्वयं के साथ लड़े जाने वाला युद्ध 
नहीं!वृक्ष की छाया नहीं थी वह 
वह एक भ्रम था जिसे 
मैं आजीवन पोषित करता रहा 
नहीं! वह भ्रम भी नहीं था 
वह मेरे 
मन के द्वारा भावों का बुना जाल था 
मकड़ जाल
तब मैं मकड़ी था और वह मकड़ जाल 
जाल में लिपटी काया दरकने लगी  
जैसे 
दरक जाती है ओस से बनी दीवार
मदद करो 
मदद करो, जीवन आवाज़ लगता रहा 
छाँव, भ्रम और मकड़ जाल हँसते रहे 
हँसना इनके खून में था 
परंतु उसे पता था 
मरुस्थल पाँव नहीं जलता 
ना ही वहाँ प्यास सताती है 
मरुस्थल में सतत बहता जीवन 
वीरानियाँ को सींचता है
हँसता नहीं।

4 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 01 अगस्त 2024 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

    !

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  2. भ्रम का जाल जितनी जल्दी छंट जाय उतना भला,,,

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