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गुरुवार, सितंबर 12

खिड़कियों से परे

खिड़कियों से परे / अनीता सैनी 

७सितम्बर२०२४

…..

उनकी 

आत्मा में गहरी संवेदनाएँ हैं 

वे कहते हैं 

स्त्रियाँ गाय हैं चिड़िया हैं 

भेड़ और बकरिया भी हैं 

उनके कंधों पर सरकती घरों की दीवारें 

वे मुख्य द्वार से निकलने की हकदार नहीं हैं 

वे दरारों और खिड़कियों से झाँकतीं हैं 

जैसे झाँकते हैं दरारों से नीम-पीपल 

समय के द्वारा

समय-समय पर दरारें

गोबर-मिट्टी के गारे से लिपी-पुती जाती हैं 

उनकी अस्थिर आँखें बोलने में असमर्थ हैं 

इस तरह उनके कान उनके के लिए मुँह हैं 

परंतु

वे वृक्ष नहीं हैं 

उन्हें सदियों से वृक्ष के चित्र दिखाकर 

उनसे 

फल-फूल और लकड़ियाँ प्राप्त की जाती रही हैं 

नाइट्रोजन की अपेक्षा ऑक्सीजन के कीड़े 

उन्हें अधिक तेजी से निगलते रहे हैं 

फिर भी वे नींद से जाग नहीं पाई 

वे नहीं जान पाई कि वे स्त्रियाँ हैं 

उन्होंने स्वयं के लिए अंधेरा चुना 

उसमें उन्हें 

उजाले के चमकते दाँत व नाख़ून दिखाई देते हैं 

उन्हें दाँत और नाख़ून ही दिखाए गए हैं 

वे कहती हैं -

“हे अंधेरा ! तुम में चेतना है 

तुम में ग्रेवीटी है

तुम सपनों के ब्लेकहॉल हो

तुम पुकारते हो तुम्हारी पुकार हमें सुनती है 

तुमसे बातें करना महज पागलपन नहीं 

अस्तित्व है तुम्हारा 

तुम्हारा गलबाँह में जकड़ना सुकून प्रद है  

गहरे समंदर में डूबने पर 

तलहटी की इच्छा कहाँ रहती है?”

इस तरह वे 

भावनाओं की गहरी घाटियों से उलझती 

और डूबती रही बहुत गहरे में 

 गाय तो कभी चिड़िया  की तरह।