प्रेम / अनीता सैनी
१६सितंबर२०२४
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मरुस्थल वैराग्य नहीं
प्रेम है!
प्रेम! बर्फ़ का मरुस्थल है
शांत - शीतल पवित्र
ठण्डा! एकदम ठण्डा!!
प्रेम!
सांसों का मौन विलाप नहीं
पुराने पीले पड़ चुके
इतिहास के पंन्नों से होकर गुजरा
एक नया विलाप भी नहीं
तुम!
पीड़ा को इंद्रियों में तौलकर
स्वयं भ्रमित हो
वह ठण्डी ज्वाला है
प्रेम!
धरती के नमक में डूबी आँखें हैं।
प्रेम से सुंदर संसार में कुछ भी नहीं।
जवाब देंहटाएंसुंदर अभिव्यक्ति।
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २० सितम्बर २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
वाह!प्रिय अनीता ,बेहतरीन सृजन!
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर सार्थक और भावप्रवण रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर मार्मिक रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भावपूर्ण सृजन
जवाब देंहटाएंवाह!!!