अवसान के निशान / अनीता सैनी
९नवंबर २०२४
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जैसे-जैसे
उम्र का सिरहाना लेकर काया सोती है,
असल में तब वह जागती है।
तब वह कविताएँ नहीं रचती,
वह अपने ही पैरों के निशान लिखती है।
और एक दिन वह अपने ही
रचे को नकार देती है,
और कहती है —
"यह जो कहा गया है, सब झूठ है,
सच इन्हीं के कहीं पीछे छिप गया है,
बहुत पीछे।"
जैसे-
चाँद छिप जाता है बादलों की ओट में,
और उसके साथ जुड़ जाता है,
होने न होने का गहरा आभास।
और तब,
सच की ऊँगली पकड़कर चलना
उसके लिए
एक और झूठ बन जाता है।