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रविवार, नवंबर 17

हिज्र के साए


हिज्र के साए/ अनीता सैनी
१६ नवंबर २०२४

एक दिन
पर्वतों की पीड़ा धोने
अंबर ने बरसाया था हिज्र का नमक।

खपरैल टूटी थी समंदर की,
वे चुपचाप पी गए हर बूंद,
पर नदियाँ प्यासी रह गईं।

उखड़ी साँसें,
प्यास का बोझ 
वे भटकती रहीं जंगल-जंगल।

उस नीले कोरे काग़ज़ की तरह
जिसे न प्रेमी से लिखा गया,
न ही प्रेमिका से पढ़ा गया।

वह तारीख बनकर
धरती की आत्मा में धड़कता रहा,
उगता रहा
वर्ष दर वर्ष,
मरुस्थल की काया पर
नागफनी का दर्द लिए।



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