हिज्र के साए/ अनीता सैनी
१६ नवंबर २०२४
एक दिन
पर्वतों की पीड़ा धोने
अंबर ने बरसाया था हिज्र का नमक।
खपरैल टूटी थी समंदर की,
वे चुपचाप पी गए हर बूंद,
पर नदियाँ प्यासी रह गईं।
उखड़ी साँसें,
प्यास का बोझ
वे भटकती रहीं जंगल-जंगल।
उस नीले कोरे काग़ज़ की तरह
जिसे न प्रेमी से लिखा गया,
न ही प्रेमिका से पढ़ा गया।
वह तारीख बनकर
धरती की आत्मा में धड़कता रहा,
उगता रहा
वर्ष दर वर्ष,
मरुस्थल की काया पर
नागफनी का दर्द लिए।
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर सोमवार 18 नवंबर 2024 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंदिल को छूने वाली मार्मिक रचना !
जवाब देंहटाएंवाह अनीता ! तुम्हारी कविताओं में एक फ़लसफ़ाना उदासी होती है !
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार सर 🙏
हटाएंसच, आप आए बहुत अच्छा लगा।
प्रकृति हमें कुछ उपहार देती है शायद यह वही उपहार है जो रह रहकर मेरी आत्मा से छलक जाता है।आशीर्वाद बनाए रखें।
प्रणाम