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रविवार, दिसंबर 15

टूटे सपनों का सिपाही


टूटे सपनों का सिपाही / अनीता सैनी
१०दिसम्बर२०२४
….
न देश है, न कोई दुनिया,
न सीमा है, न ही कोई सैनिक।
कोई किसी का नागरिक नहीं, ना ही नागरिकता।

एक खालीपन, और नथुनों से दौड़ती वेदना,
कई-कई पहाड़ों को पार कर,
चोटिल अवस्था में लुढ़कती और बस
लुढ़कती ही रहती है।

कहती है—
“उसे इतने वर्षों से गढ़ा जा रहा था।”
“शुभ संकेत है इस आभास का होना।”

कहते हुए वह खिलखिलाई,
और वह गहरे में टूट जाता है।

वे दोनों एक-दूसरे की आँखों में देखते हैं,
और देखते ही रहते हैं।
वह, माता-पिता के साथ बच्चों की गिनती करता है,
बच्चों के खोए माता-पिता को ढूँढ़ता है।

बारूद के ढेर पर खड़ा बिन पैरों को उचकाए,
हथियारों की निगरानी करता है,
और भी बहुत कुछ करता है, परंतु कहता नहीं।

वे शान के खिलाफ हैं।
कहता है—
“सबसे कठिन है खोए माता-पिता को ढूँढ़ना।
वे नहीं मिलते, और फिर बच्चों को बहलाना।”

उसे हथियार चलाने आते हैं।
कहता है—
“AK-47 साथ रखता हूँ।”

वह, वह सब कुछ करता है, जो उसे कहा जाता है।
एक शांति के दूत को,
यही सब गहरे में बैठकर खाए जाता है।